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*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *भाग २* *निष्कामता*
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एक निष्कामी हरिभक्त हाथ में तलवार लिये तृण घास खा रह था । वह एक सज्जन की दृष्टि में आ गया, सज्जन ने उससे पूछा - तुम्हारे हाथ में तलवार है तुम वीर पुरुष ज्ञात होते हो फिर भी पशु की भांति घास क्यों खा रहे हो?
वह बोला - मुझे लौकिक भोगों की लेशमात्र भी कामना नहीं है । तलवार तो मैने अपनी तीन शत्रुओं को मारने के लिये ले रखी है ।
सज्जन - तुम्हारे तीन शत्रु कौन कौन हैं ?
भक्त - एक तो नारद अर्जुन और द्रौपदी ।
सज्जन- ये शत्रु किस कारण हुये ?
भक्त - नारदजी ने भगवान को शाप देकर सीता माता के वियोग का दुख दिया, अर्जुन ने भगवान को युद्धभूमि में रथ चलवाया । द्रौपदी ने प्रार्थना करके भगवान को द्वारिका से दौड़ाकर अपने पास बुलवाने को दो बार कष्ट दिया । एक बार चीर बढाने के समय और दूसरी बार दुर्वासा के शाप से बचने के लिये वन में बुलावाया था, शाक पत्र खाकर विश्व का तृप्त किया था, इसलिये वे मेरे शत्रु हैं, उन्हे मार कर ही शान्ति लूँगा।
यह सुन सज्जन की भी आँख खुल गई कि - वास्तव में भक्त यही है जो अपना सुख न चाहकर भगवान के क्लेश को सहन नहीं कर सकता । इसी प्रकार भक्त को निष्काम रहना चाहिये ।
निष्कामी होता नहीं, भोगन के हित दीन ।
असि कर तृण खावत कहा, वैरी मेरे तीन॥२९८॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###
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