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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*गुरुमुख कसौटी*
*साधु अंग का निर्मला, तामें मल न समाइ ।*
*परम गुरु प्रकट कहै, ताथैं दादू ताइ ॥१३३॥*
साधु का अन्तःकरण निर्मल होता है, उसमें कोई दोष प्रवेश ही नहीं कर सकता । और शुद्धान्तःकरण में ही ज्ञान की उपलब्धि होती है । इसलिये साधक को अपना अन्तःकरण निर्मल बनाये रखने का सतत प्रयास करना चाहिये ॥१३३॥
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*चितावणी*
*राम नाम गुरु सबद सौं, रे मन पेलि भरम ।*
*निहकर्मी सौं मन मिल्या, दादू काटि करम ॥१३४॥*
पहले राम नाम का स्मरण करके अपने अन्तःकरण को निर्मल बनाना चाहिये; जिससे भेद-भ्रम की निवृत्ति हो सके । इस भेद-भ्रम के नष्ट होते ही ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्मों का भी नाश हो जायेगा । तथा जीव-ब्रह्म की एकता भी सम्पन्न हो जायेगी । गुरु ने ज्ञान प्राप्ति का यही साधना क्रम बताया है ॥१३४॥
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*सूक्ष्म मार्ग*
*दादू बिन पाइन का पंथ, क्यों करि पहुँचै प्राण ।*
*विकट घाट औघट खरे, मांहि शिखर असमान ॥१३५॥*
ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष का कोई दूसरा साधन नहीं है; क्योंकि श्रुति में यही लिखा है- “वहाँ पहुँचने का कोई अन्य मार्ग नहीं है” । यह ज्ञान काम-क्रोधादि छह शत्रुओं पर विजय के बिना असम्भव है ।
गीता में लिखा है-
जो इस शरीर के छूटने से पहले ही काम-क्रोध आदि के वेग को सहन कर लेता है, वह योगी है और वही सुखी है । अतः मुमुक्षु साधक को चाहिये कि सम्पूर्ण अनर्थों के मूलभूत, श्रेयस् मार्ग के प्रतिबन्धक, कष्ट देने वाले इन काम-क्रोधादि दोषों को प्रयत्न करके निवारण करना चाहिये । श्रीदादूजी महाराज ने “विकट घाट औघट खरे” - ऐसा कहकर इस की भयंकरता को ही बतलाया है । “माँहि सिखर असमान” - इस वाक्य से इन का दुर्निवारत्व बतलाया है । क्यों कि देवलोक भोगप्रधान है ।
गीता में भी नदीवेग की उपमा से काम-क्रोधादि की उत्कटता ही प्रतीत होती है । जैसे वर्षाऋतु में जल के बढ़ जाने से नदी का वेग अति प्रबल हो जाता है और वह न चाहने वाले को भी खड्डे में गिरा कर डूबा देता है । और नीचे से नीचे पहुँचा देता है; ऐसे ही काम क्रोध का वेग भी विषयों के पुनः पुनः ध्यान से न चाहते हुए को भी विषयगर्त में पटक कर संसार समुद्र में डूबा देता है । और प्राणी अन्त में नरकगामी हो जाता है । गीता में ही लिखा है- “काम, क्रोध एवं लोभ- ये तीनों ही नरक के द्वार हैं, अतः उन तीनों का ही (मुमुक्षु को) त्याग कर देना चाहिये” ॥१३५॥
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*मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।*
*शब्द गुरु का ताजणां, कोइ पहुंचै साधु सुजाण ॥१३६॥*
मन ही अश्व है । उस पर आरूढ होकर मनोवृत्तियों को ब्रह्माकर बना कर उनको ब्रह्म में लगाये । यदि कभी मन की प्रबल चंचलता के कारण उस मन की वृत्तियाँ संसार की तरफ जाने लगें तो उसे गुरुवचन रूपी डण्डे से डराकर पुनः ब्रह्म में लीन करे । ऐसा साधक अभ्यास के बल से ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ।
यहाँ शंका हो सकती है कि चित्त शक्ति को छोड़कर संसार के जितने भी भाव पदार्थ हैं उनका परिणाम प्रवाह रुकता नहीं, तो फिर मन का परिणाम प्रवाह ब्रह्म में कैसे रुक सकेगा? उस का समाधान यह है कि जिसका चित्त व्युत्थित है, अर्थात् रुका हुआ नहीं है, उसके विषय में तो यह बात ठीक है, लेकिन जिसने अपने मन को रोक लिया है उस के मन की वृत्ति ब्रह्म में अवरुद्ध हो सकती है । जैसे अग्नि में लकड़ी, घृत आदि के प्रक्षेप से अग्नि अधिक से अधिक प्रज्वलित होकर अधिक से अधिक बढ़ती है; वैसे ही निरुद्ध चित्त की वृत्ति का भी, अभ्यास के कारण, ब्रह्म में अधिक से अधिक उत्तरोत्तर प्रशमता का प्रवाह बढ़ता ही जाता है । पूर्व पूर्व प्रशमता के संस्कार उत्तरोत्तर प्रशमता के कारण होते हैं । इसलिये भगवान् ने गीता में प्रशान्तवाहिनी चित्तवृत्ति का उल्लेख किया है-
जिस समय साधक का चित्त आत्मा में ही स्थित हो जाता है, उस समय साधक निःस्पृह, सर्वकामनाओं से मुक्त होकर ब्रह्म से ही युक्त रहता है ॥१३६॥
(क्रमशः)

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