मंगलवार, 19 नवंबर 2019

स्मरण का अंग ४२/४५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*दादू पिंजर पिंड शरीर का, सुवटा सहज समाइ ।* 
*रमता सेती रमि रहै, विमल विमल जस गाइ ॥४२॥* 
*अविनाशी सौं एक ह्वै, निमिष न इत उत जाइ ।* 
*बहुत बिलाई क्या करै, जे हरि हरि शब्द सुणाइ ॥४३॥* 
जैसे पिंजरे में बैठा हुआ तोता निरन्तर ‘हरि हरि’ जपता है, तो उसको बिल्ली का कोई भय नहीं रहता; इसी तरह साधक भी सर्वगत, सर्वभूतस्थित ब्रह्म का अपने हृदय में अक्षुण्ण ध्यान करता है । ध्यान से वह ब्रह्मरूप हो जाता है । और ब्रह्म को किसी से भय होता नहीं । अपितु उसी से सब भयभीत रहते हैं । लिखा है- 
जिसके भय से वायु बहता है, सूर्य तपता है, अग्नि प्रसन्नचित्त रहती है, इन्द्र वर्षा बरसाता है, मृत्यु भी उसी के भय से इधर-उधर चलता है । 
अतः साधक शुकपक्षी की तरह हृत्प्रदेश में प्रसन्न हो-हो कर गोबिन्द के नाम जपता है । क्षणमात्र भी इधर उधर नहीं जाता । अतः विघ्नस्वरूप कामादि विकार भी कुछ विघ्न नहीं कर पाते ॥४२-४३॥ 
*दादू जहाँ रहूँ तहँ राम सौं, भावै कंदलि जाइ ।* 
*भावै गिरि परवत रहूँ, भावै गृह बसाइ ॥४४॥* 
*भावै जाइ जलहरि२ रहूं, भावै शीश नवाइ ।* 
*जहां तहां हरि नाम सौं, हिरदै हेत लगाइ ॥४५॥* 
हे प्रभो ! मेरा जन्म भाग्यवशात् घर में हो, या वन में, जल में हो या पर्वत के शिखर पर या उसकी किसी गुफा में; परन्तु मेरा मन आप में ही आसक्त रहे । और सर्वत्र, सर्व काल में हरिस्मरण ही होता रहे-यही मेरी प्रार्थना है । 
सनकादि ऋषि कहते हैं- 
“यदि हमारे कर्मानुसार हमारा जन्म चाहे नरक में हो जाय, परन्तु हमारा चित्त, भौंरे की तरह, आपके चरणकमलों में ही रमा रहे ॥” 
द्रौपदी भी कहती है- 
“हे नाथ ! हजारो योनियों में भटकते हुए भी उन उन योनियों में मेरी आपमें अचल भक्ति बनी रहे । यदि काल के प्रभाव के कारण मुझे अधोलोकों में भी जाना पड़े, या यदि नीच कुल में जन्म लेना पड़े अथवा पक्षी या कीटयोनियों में जाना पड़े, सैकड़ों बार कीड़ा बनना पड़े; तो भी मेरे हृदय में आपकी भक्ति बनी रहे ।” 
“यदि कीट, मृग, पक्षी, सर्प, राक्षस, पिशाच, मनुष्य आदि किसी भी योनि में जन्म लेना पड़े; फिर भी आपकी कृपा से मैं आपकी अचल और अव्यभिचारिणी भक्ति करता रहूँ । या फिर देवताओं का राजा, राक्षसों का राजा, या मनुष्य अथवा घोड़ा ही क्यों न बनना पड़े; किन्तु आप का दर्शन, गुण कीर्तन और आप की सेवा मेरे द्वारा होती रहे” ॥४४-४५॥ 
(क्रमशः)

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