बुधवार, 20 नवंबर 2019

स्मरण का अंग ४६/५०


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
.
*मन परमोध* 
*दादू राम कहे सब रहत है, नखसिख सकल सरीर ।* 
*राम कहे बिन जात है, समझि मनवां वीर ॥४६॥* 
*दादू राम कहै सब रहत है, लाहा मूल सहेत ।* 
*राम कहे बिन जात है, मूरख मनवां चेत ॥४७॥* 
*दादू राम कहे सब रहत है, आदि अंति लौं सोइ ।* 
*राम कहे बिन जात है, यहु मन बहुरि न होइ ॥४८॥* 
*दादू राम कहे सब रहत है, जीव ब्रह्म की लार ।* 
*राम कहे बिन जात है, रे मन हो होशियार ॥४९॥* 
हे मन ! यदि तूं अपने इन्द्रियनिरोध में असमर्थ है तो फिर हरि स्मरण कर ! हरि स्मरण से, पापों का नाश होने से, शुद्ध इन्द्रियाँ जली हुई लकड़ियों की तरह स्वयं ही शान्त हो जाती हैं । गीता में लिखा है- 
“जैसे निराहार रहने से मानव के सब विषय निवृत्त हो जाते हैं, रस(वासना) को छोड़कर और उस परब्रह्म परमात्मा को जान लेने पर तो वह रस भी निवृत्त हो जाता है । यहाँ ‘रस’ शब्द का अर्थ-(वासना) । इस रस की निवृत्ति तो भगवत् ज्ञान से ही होती है । अपने विषय में प्रवर्तमान इन्द्रियों के पीछे मन भी उन में प्रवृत्त हो जाता है ।” 
“जैसे वायु जल में चलती नौका को अपने प्रबल वेग से इधर-उधर अमार्ग में घुमा देता है, उसी तरह यह मन साधक की आत्मविषयक बुद्धि को इधर-उधर घुमाता रहता है; क्योंकि मन में विषय-वासना भरी रहती है ।” 
अतः भगवान् की शरणागति ग्रहण कर, इन्द्रियों को रोकना चाहिये । अन्यथा उसका आत्मज्ञान और शरीर लाभ के बिना ही नष्ट हो जायेगा । 
इस मानव शरीर द्वारा भगवद्भक्ति के लिये यह सुअवसर मिला है; इसको विषयों के भोग में व्यर्थ नहीं खोना चाहिये । यह बार बार नहीं मिलता । 
भगवान् तो सदा साथ ही रहते हैं । अधिक क्या कहें, भगवान् के स्मरण से अज्ञान नष्ट होकर ज्ञान के द्वारा मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है । अतः सावधान होकर भगवान् का भजन करो, प्रमाद में व्यर्थ ही जीवन नष्ट न करो । 
लिखा है- 
“यदि दुष्टचित्त व्यक्ति भी हरि का स्मरण करता है तो उसका मन शुद्ध हो जाता है, जैसे बिना इच्छा के भी अग्नि का स्पर्श करने पर वह हाथ को जला ही देती है । अतः भगवान् का सतत स्मरण करना चाहिये । उसका कभी विस्मरण न हो-ऐसा प्रयास करना चाहिये । विधि-निषेध तो सब इसके आज्ञाकारी सेवक हैं ॥४६-४९॥” 
*परोपकार* 
*हरि भज साफिल जीवना, पर उपकार समाइ ।* 
*दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पंखी खाइ ॥५०॥* 
हरिभजन में ही मानव जीवन की सफलता है । यह हरिभजन भी परोपकारमय होना चाहिये और परोपकार भी मरण पर्यन्त इस शरीर से होता रहे । उसकी मर्यादा तो यह है कि इस देह का पात वहाँ होना चाहिये कि यह शरीर, प्राण निकलने के बाद भी, उन जीव जन्तुओं के काम आवे जो इसे खाकर सन्तुष्ट हो जायें । लिखा है- 
जो दीनों पर दया करते हैं, जिन को लक्ष्मी के मद का कभी स्पर्श भी नहीं हो पाता, जो दूसरों की भलाई में दिन-रात लगे रहते हैं और याचकों से अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं, ऐसे परोपकारी सन्त-महात्मा रूपी खम्भों पर ही यह पृथ्वी इस कलिकाल में भी टिकी हुई है । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें