सोमवार, 4 नवंबर 2019

गुरुदेव का अंग १३७/१४१

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*पारख लक्षण* 
*साधौं सुमिरण सो कह्या, जिहि सुमिरण आपा भूल ।* 
*दादू गहि गंभीर गुरु, चेतन आनन्द मूल ॥१३७॥* 
ब्रह्मज्ञान का अभ्यास ही ब्रह्मवेत्ताओं ने ‘स्मरण’ कहा है । जिससे अहंकाराध्यास का नाश हो । इसलिये ब्रह्मनिष्ठ गुरु के द्वारा ब्रह्म का चिन्तन करते हुए आनन्दस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त करो । क्योंकि “ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप ही होता है ।” और वे ब्रह्म का ही चिन्तन, उसी का कथन करते हुए उसी के चित्त वाले होते हुए नित्य प्रसन्न रहते हैं । उसी में रमण करते हैं । योगवासिष्ठ में भी लिखा है- 
“अपने पुरुषार्थमात्र से साध्य तथा अपने ईप्सित पदार्थ के त्याग से मन की प्रसन्नता से ही शुभगति प्राप्त होती है । मूढ पुरुषों द्वारा मन के संकल्प से कल्पित भाग्य को छोड़कर पुरुषार्थ से ज्ञान के द्वारा अपने चित्त को अद्वैत रूप अचित्तता को प्राप्त करावे ।” 
यहाँ अद्वैत रूप ब्रह्मज्ञान ही पुरुषार्थ है । तद्रूपा वृति ही आत्मचित्ति है । उस वृत्ति से सतत आत्मचिन्तन करते हुए अचित्तता, अद्वैत रूप को प्राप्त करो ॥१३७॥ 
*स्वार्थ परमार्थ* 
*दादू आप स्वारथ सब सगे, प्राण सनेही नांहि ।* 
*प्राण सनेही राम है, कै साधु कलि मांहि ॥१३८॥* 
*सुख का साथी जगत सब, दुख का नाहीं कोइ ।* 
*दुख का साथी सांइयाँ, दादू सतगुरु होइ ॥१३९॥* 
*सगे हमारे साध हैं, सिर पर सिरजनहार ।* 
*दादू सतगुरु सो सगा, दूजा धंध विकार ॥१४०॥* 
सभी प्राणी अपने-अपने स्वार्थ के लिये एक दूसरे से प्रेम करते हैं, दूसरों के हित के लिये कोई प्रेम नहीं करता । 
इसी तरह सुख में सब संगी होते हैं, दुःख पड़ने पर कोई संगी नहीं होता । केवल परमात्मा ही दुःखावस्था में प्राणी का सहयोगी होकर सहायता करता है । क्योंकि वह निरपेक्ष है । अथवा-सब आशाओं से निर्मुक्त, सुख-दुःख में समान रहने वाले संत ही मनवाणी-कर्म से सब प्राणियों का हित किया करते हैं; सत्य उपदेश के द्वारा के पाप से हटा कर धर्म में लगाते हैं । सत्य ब्रह्म का उपदेश कर ब्रह्म में मन को लीन करते हैं । 
संसारी पुरुष तो विषयों में लगा कट दुःख के गर्त में ही पटकते हैं । इसलिये परमात्मा ही सच्चा संगी या फिर सद्गुरु ही वास्तविक संगी है; सत्य उपदेश के द्वारा । पाप से हटाकर धर्म में लगाते है । सत्य ब्रह्म का उपदेश कर के मन को ब्रह्म में लीन कराते हैं । सांसारिक पुरुष तो विषयों में लगाकर दुःख के गर्त में ही पटकते हैं । इसलिये सब का संग त्यागकर परमेश्वर का ही चिन्तन करना चाहिये । लिखा है – 
“संग तो सर्वात्मना त्याज्य ही है और यदि वह न छोड़ा जाय तो फिर साधु पुरुषों का संग करना चाहिये । क्योंकि उनका संग सब दोषों को दूर करने वाला माना गया है । जो परमात्मा को छोड़कर दूसरे का संग करेगा वह दुखी होगा ।” 
उपनिषद् में भी याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में लिखा है- 
‘हे मैत्रेयी ! पति के हित के लिये स्त्री पति से प्रेम नहीं करती, किन्तु अपने सुख के लिये प्रेम करती है; पति भी स्त्री के हित के लिये उससे प्रेम नहीं करता; किन्तु अपने हित के लिये प्रेम करता है” इत्यादि पाठ से लगाकर अन्त में कहा है- “कोई भी किसी दूसरे के लिये उससे प्रेम नहीं करता; किन्तु अपने ही स्वार्थ के लिये सब प्रेम करते हैं । अतः आत्मा ही सब का प्रिय है, उसी का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके उसको पहचानना चाहिये ।” 
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*दया निर्वेरता* 
*दादू के दूजा नहीं, एकै आत्मराम ।* 
*सतगुर सिर पर साध सब, प्रेम भक्ति विश्राम ॥१४१॥* 
“सब कुछ ब्रह्म है” इस श्रुति सिद्धान्त के अनुसार मेरी दृष्टि में सब कुछ ब्रह्मरूप ही प्रतीत होता है, अतः न कोई मेरा प्रेमी है, न वैरी । फिर भी संत और सद्गुरु मुझे प्रिय ही है, क्योंकि सन्त अच्छी शिक्षा देकर प्रेम भक्ति प्रदान करते हैं और सद्गुरु ब्रह्म प्राप्ति कराते हैं ॥१४१॥
(क्रमशः)

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