शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

= *दया निर्वैरता का अंग ९१(३३/३६)* =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*ज्यों आपै देखै आपको, यों जे दूसर होइ ।*
*तो दादू दूसर नहीं, दुःख न पावै कोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
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द्वेष द्वेष सों ऊपजे, नर देखो निरताय१ । 
राहु केतु शशि रवि ग्रहैं, सप्त नक्षत्र स्वभाय ॥३३॥
हे नरो ! विचार१ करके देखो, वैर से ही वैर उत्पन्न होता है, राहु केतु ही चन्द्र-सूर्य को ग्रहण करते हैं, अन्य सप्त नक्षत्र तो स्वभाव से ही रहते हैं, वैर नहीं करते । 
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रज्जब अज्जब काम है, जे हूजे१ निर्दोष । 
पड़े न बंधन वैरता, मानहु हूजे२ मोष३ ॥३४॥
यदि कोई द्वैष रूप दोष रहित हो सके१ तो यह अदभुत काम है, वह वैरपने के बन्धन में नहीं पड़ता, अत: यह शिक्षा मानकर द्वैष से मुक्त३ होना२ ही चाहिये । 
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रज्जब अज्जब काम है, जो दिल न दुखया जाय । 
यहां खलक१ उस पर खुशी, आगे खुशी खुदाय ॥३५॥
यदि द्वैष के द्वारा किसी का हृदय व्यथित नहीं किया जाय तो यह अदभुत काम है, यहाँ संसार१ के प्राणी उस पर प्रसन्न रहते हैं और आगे ईश्वर प्रसन्न होते हैं । 
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हंस६ हते हत्या सही१, परि आदम२ अध अधिकाय । 
रज्जब निरखहु नर हि डसि३, पन्नग४ पूंछ गरि५ जाय ॥३६॥
वैसे ही किसी जीव६ को मारो हत्या निश्चित१ ही होती है, किन्तु मनुष्य२ को मारने से अधिक होती है । देखो सर्प४ नर को डसता३ है तब उसकी पुछ गल५ जाती है, अन्य को डसने से नहीं गलती । 
(क्रमशः)

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