शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*आदि अंति आगे रहे, एक अनुपम देव ।*
*निराकार निज निर्मला, कोई न जाणे भेव ॥*
*अविनासी अपरंपरा, वार वार नहीं छेव ।*
*सो तूँ दादू देखि ले, उर अंतर कर सेव ॥*
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एक बहुत सोचने में और कभी भीतर खोजने जैसी बात है। कितना ही मन में सोचें, आप यह कभी सोच न पाएंगे, इसकी कल्पना नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। कितना ही प्रयास करें इसकी कल्पना बनाने की, कल्पना भी नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। इसका विचार ही भीतर नहीं पकड़ में आता कि मैं मर जाऊंगा। इसीलिए तो इतने लोग चारों तरफ मरते हैं, फिर भी हमारे विचार में नहीं आता कि मैं मर जाऊंगा। भीतर सोचने जाओ, तो ऐसा लगता ही नहीं कि मैं मरूंगा।
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भीतर मृत्यु के साथ कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। कल्पना करें, यदि हमे ऐसे स्थान पर रखा जाए जहां कोई न मरा हो और हमने कभी मरने की कोई घटना न देखी हो, हमने मृत्यु शब्द न सुना हो, हमे किसी ने मृत्यु के बाबत कुछ न बताया हो, क्या हम अपने ही तौर अकेले ही कभी भी सोच पाएंगे कि हम मर सकते हैं? नहीं सोच पाएंगे। यह निजी एकांत में हम न खोज पाएंगे कि हम मर सकते हैं, क्योंकि मृत्यु की कल्पना ही भीतर नहीं बनती।
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भीतर जो है, वह मरणधर्मा नहीं है। वह अजन्मा भी है। वास्तव में वही मरता है, जो जन्मता है। जो नहीं जन्मता, वही नहीं मरता है। श्री कृष्ण कहते हैं, मैं अजन्मा हूं, अजात, जो कभी जन्मा नहीं। और इसलिए मरूंगा भी नहीं। औरों की भांति मैं जन्मा हुआ नहीं हूं, अर्जुन !
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*और तो सभी मानते हैं कि उनका जन्मदिन है। उनके मानने में ही उनकी भ्रांति है। ऐसा नहीं है कि वे जन्मे हैं, जन्मे तो वे भी नहीं हैं। परन्तु जिस दिन वे जान लेंगे कि वे जन्मे नहीं हैं, वे भी मेरे ही भांति हो जाएंगे, वे भी मेरे ही रूप हो जाएंगे।*
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यह जो अजन्मा है, जो कभी जन्मता नहीं है, वह भी तो आया है। वह भी तो उतरा है, आविर्भूत हुआ है। वह भी तो पैदा हुआ है। वह भी तो जन्मा ही है। श्री कृष्ण भी तो जन्मे ही हैं।
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*श्री कृष्ण कहते हैं, अजन्मा हूं मैं। यहां जिस "मैं" की बात कर रहे हैं, वह परम मैं, परमात्मा का मैं। मेरा कोई जन्म नहीं; फिर भी उतरा हूं इस शरीर में। तो फिर इस शरीर में उतरना क्या है? उसको वे कहते हैं, योगमाया से।*
इस शब्द को समझना आवश्यक होगा, योगमाया से, इसका क्या अर्थ है? थोड़ा-सा सम्मोहन की दो-एक बातें समझ लें, तो यह समझ में आ सकेगा।
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*योगमाया का अर्थ है, या ब्रह्ममाया कहें या कोई और नाम दें, इससे कोई भेद नहीं पड़ता, अर्थ यही है कि यदि आत्मा चाहे, आकांक्षा करे, तो वह किसी भी वस्तु में प्रवेश कर सकती है। आकांक्षा करे, तो किसी भी वस्तु के साथ संयुक्त हो सकती है। आकांक्षा करे, तो जो नहीं होना चाहिए वस्तुतः, वह भी हो सकता है। संकल्प से ही हो जाता है।*
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सम्मोहन की विधि में समजे तो योगमाया समझ में आ सके। वह भी एक बड़ा समोहन ही है। कहें कि स्वयं परमात्मा अपने को सम्मोहित करता है, तो संसार में उतरता है, अन्यथा नहीं उतर सकता। परमात्मा को भी संसार में उतरना है, हम भी उतरते हैं, तो सम्मोहित होकर ही उतरते हैं। एक गहरी तंद्रा में उतरें, तो ही पदार्थ में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए जाग जाएं, तो पदार्थ के बाहर हो जाते हैं। और सम्मोहन में डूब जाएं, तो पदार्थ के भीतर हो जाते हैं।
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श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं परमात्मा की तरफ से बोल रहा हूँ कि मैं अपनी योगमाया से शरीर में उतरता हूं। शरीर में उतरना तो सदा ही सम्मोहन से होता है। परन्तु सम्मोहन दो प्रकार के हो सकते हैं। और यही भेद अवतार और साधारण व्यक्ति का फर्क है। यदि हम जानते हुए, सचेत, शरीर में उतरें, जानते हुए तो हम अवतार हो जाते हैं। और यदि हम न जानते हुए शरीर में उतरें, तो हम साधारण व्यक्ति हो जाते हैं। सम्मोहन दोनों में काम करता है। परन्तु एक स्थिति में हम सम्मोहित होते हैं प्रकृति से और दूसरी स्थिति में हम आत्म-सम्मोहित होते हैं, हम स्वम् ही अपने को सम्मोहित करके उतरते हैं। कोई दूसरा नहीं, कोई प्रकृति हमे सम्मोहित नहीं।
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*साधारणतः हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है। मैं मरूंगा। हजार इच्छाएं मुझे पकड़े होंगी, वे पूरी नहीं हो पाई हैं। वे मेरे मन-प्राण पर अपने घोंसले बनाए हुए बैठी हैं। वे मेरे मन-प्राण को कहती हैं कि और शरीर मांगो, और शरीर लो; शीघ्र शरीर लो, क्योंकि हम अतृप्त हैं; तृप्ति चाहिए।*
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श्री कृष्ण जो की ब्रह्मस्वरूप हैं, जानते हुए जन्मते हैं, किसी इच्छा के कारण नहीं, कोई अंधी इच्छा के कारण नहीं। फिर किसलिए जन्मते होंगे? *जब इच्छा न बचे, तो कोई किसलिए जन्मेगा? जब इच्छा न बचे, तो नए जन्म को धारण करने का कारण क्या रह जाएगा? इच्छा तो मूर्च्छित-जन्म का कारण है। फिर क्या कारण रहेगा? अकारण तो कोई पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अकारण कोई पैदा होता भी नहीं। परन्तु जब इच्छा विलीन हो जाती है, और जब इच्छा विलीन हो जाती है तभी, करुणा का जन्म होता है।*
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*कृष्ण जैसे ब्रह्मस्वरूप करुणा के कारण पैदा होते हैं। जो उन्होंने जाना, जो उनके पास है, उसे बांट देने को पैदा होते हैं। परन्तु यह जन्म सचेष्ट जन्म है। इसलिए उनकी पिछली मृत्यु जानी हुई होती है; यह जन्म जाना हुआ होता है। और जो व्यक्ति अपनी एक मृत्यु और एक जन्म को जान लेता है, उसे अपने समस्त जन्मों की स्मृति वापस उपलब्ध हो जाती है। वह अपने समस्त जन्मों की अनंत शृंखला को जान लेता है।*
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इसलिए जब श्री कृष्ण कह रहे हैं कि तुझे पता नहीं, मुझे पता है। और मैं औरों की भांति मूर्च्छित नहीं जन्मा हूं; सचेष्ट, अपनी ही योगमाया से, अपने को ही जन्माने की शक्ति का स्वयं ही सचेतन रूप से प्रयोग करके इस शरीर में उपस्थित हुआ हूं। तो वे एक बहुत गुह्य-विज्ञान की बात कह रहे हैं।
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*इस रहस्य की बात को ऊपर से समझा ही जा सकता है। जानना हो, तब तो भीतर ही प्रवेश करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। और कठिन नहीं है यह बात कि आप औरों की भांति की दुनिया से हटकर कृष्ण की भांति दुनिया में प्रवेश कर जाएं।

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