सोमवार, 25 नवंबर 2019

= *कमला काढ का अंग ९४(१/४)* =

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*दादू मोह संसार को, विहरै तन मन प्राण ।*
*दादू छूटै ज्ञान कर, को साधु संत सुजाण ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*कमला काढ का अंग ९४*
इस अंग में मन से माया निकलने विषयक विचार कर रहे हैं ~ 
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रज्जब रिधि रतनों मयी, मन समुद्र के माँहिं । 
कोउ जन काढै कमठ ह्वै, नहीं तो निकसे नाँहिं ॥१॥ 
समुद्र में चौदह रत्न रूप माया थी, उसे कच्छपावतार ने निकाला था, वैसे ही मन में स्थित गुणमयी माया को कोई संत मानव ही निकालता है, नहीं तो यह नहीं निकलती । 
कमला१ काली२ एक है, सो देही दह माँहिं । 
कोउ इक काढै कृष्ण ह्वै, नहीं तो निकसे नाँहिं ॥२॥ 
माया१ और कालिय२ नाग दोनों एक जैसे हैं, कालिय को श्रीकृष्ण ने ही दह से निकाला था वह अन्य से तो नहीं निकलता था, वैसे ही शरीर में माया है, उसे भी कोई श्रीकृष्ण के समान समर्थ संत ही निकाल सकता है साधारण से तो वह नहीं निकलती । 
माया मणि मन मकर१ मुख, दुर्लभ२ लेणी दोय । 
रज्जब ठौर सु विषम३ है, वेत्ता४ काढै कोय ॥३॥ 
मगर१ के मुख से मणि और मन से माया निकालना ये दोनों काम कठिन२ हैं, इन दोनों के ही स्थान बड़े विकट३ हैं । कोई विशेष ज्ञानवान४ ही उक्त दोनों को निकाल सकता है । 
वित१ वीरज२ पारा मयी, काया कूप मधि वास । 
साधु सुन्दरी परसतों, बाहर ह्वै परकाश३ ॥४॥ 
माया१, वीर्य२ और पारा के समान है, शरीर में स्थित वीर्य नारी के स्पर्श से शरीर के बाहर आ जाता है । पारे के कूप में नारी देखती है तब नारी की छाया पारे के स्पर्श होते ही पारा कूप से बाहर आ जाता३ है । वैसे ही संत के संग माया मन से बाहर आ जाती है । 
(क्रमशः)

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