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*दादू कोई काहू जीव की, करै आत्माघात ।*
*साच कहूँ संशय नहीं, सो प्राणी दोज़ख जात ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
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घात१ घट२ को करैं, जाहिर३ कहै हक्क४ हलाल५ ।
रज्जब्बा यहु पंद६ पकड़े , जाहिं पचि७ पामाल८ ॥२१॥
प्रत्यक्ष३ में शरीर२ को नष्ट१ करते हैं और कहते हैं - हम तो सत्य४ और शास्त्रानुकूल५ ही करते हैं, यह उक्त उपदेश६ पकड़ते हैं, वे तो अनुचित परिश्रम७ करके नष्ट८ ही होते हैं ।
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सब में सांई मांस सु खाँहिं, जो निज रूप नजर में नाँहिं ।
जाहि भजे ता ही सौ वैर, रज्जब नाँहिं कही कछु गैर१ ॥२२॥
सब में प्रभु बसते हैं, ऐसा कहते हैं और मांस भी खाते हैं, तो समझना चाहिये, अपना स्वरूप ब्रह्म उनकी दृष्टि में नहीं आया है । ये तो जिसका भजन करते हैं उसी से वैर करते हैं, यह बात मैंने कुछ भी विरूद्ध१ नहीं कही है, ठीक ही कही है ।
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तन मंदिर मूरति मधि१ आतम, फोड़े फूटे दोय ।
उभय उजाड़ एक के कीजे, खसम२ खुशी क्यों होय ॥२३॥
मंदिर में१ मूर्ति होती है, वैसे ही शरीर में आत्मा है । मंदिर को तोड़ने से मूर्ति और मंदिर दोनों टूटते हैं, वैसे ही शरीर को नष्ट करने से जीवात्मा को भी कष्ट होता है । एक को हानि पहुचाने से दोनों की हानि होती है, फिर प्रभु२ कैसे प्रसन्न होंगे ?
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वक्त्र१ तिणा२ ले नीकसे, खून३ खता४ क्षति५ क्षोभ६ ।
घास गास जिन मुख सदा, तिन मार्यों क्या शोभ७ ॥२४॥
मुख१ में तृण२ लेकर निकसने से खूनी३ अपराध४ से उत्पन्न क्रोध५ भी नष्ट६ हो जाता है, फिर जिनके मुख में सदा ही घास का ग्रास रहता है, उन गरीब पशुओं को मारने से क्या शोभा७ होती है?
(क्रमशः)
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