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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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१०० - पँचम ताल
आव पियारे मींत हमारे,
निश दिन देखूँ पांव तुम्हारे ॥टेक॥
सेज हमारी पीव संवारी,
दासी तुम्हारी सो धन१ वारी ॥१॥
जे तुझ पाऊं अँग लगाऊं,
क्यों समझाऊं वारणे जाऊं ॥२॥
पँथ निहारूँ बाट संवारूँ,
दादू तारूँ तन मन वारूँ ॥३॥
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हे हमारे प्यारे मित्र ! हमारे पधारिये । मैं रात - दिन आपके स्वरूप भूत चरणों का दर्शन करूँगी ।
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स्वामिन् ! मैंने अपनी हृदय - शय्या दैवी गुणों से सजाली है और मैं आपकी पत्नी१ रूप में दासी हूं, सो अपनी वृत्ति रूप सखी१ को आप कर निछावर करती हूं ।
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यदि मैं आपको प्राप्त कर लूँगी तब तो अपने को आपके स्वरूप में अद्वैत रूप से लगा दूँगी किन्तु आप तो आते ही नहीं । आपको कैसे समझाऊं ? केवल आपकी बलिहारी जाती हूं ।
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आपकी प्राप्ति के साधन रूप मार्ग को ठीक करते हुये आपका पँथ देख रही हूं । आप पर तन - मन निछावर करके अपने को सँसार से तारना चाहती हूं, कृपा करके दर्शन दीजिये ।
(क्रमशः)
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