मंगलवार, 26 नवंबर 2019

स्मरण का अंग ७२/७५


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*नाम सपीड़ा लीजिए, प्रेम भगति गुण गाइ ।* 
*दादू सुमिरण प्रीति सौं, हेत सहित ल्यौ लाइ ॥७२॥* 
साधक को पीड़ा सहित विरहभरी प्रेमाभक्ति से श्रीहरि का स्मरण करना चाहिये । जिस भक्ति से चित्त द्रवित हो जाय, वाणी गद्गद हो जाय, रोम-हर्ष प्रतीत हो, वह प्रेमभक्ति कहलाती है । भागवत में इसके ये लक्षण बताये हैं-
रोमहर्ष व आनन्दाश्रु तथा चित्त के द्रवित हुए विना अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता । किन्तु जिसकी वाणी प्रेम से गद्गद हो जाय, चित्त द्रवित हो जाय, वह कभी रोने, कभी हँसने लगे, कभी निर्लज्ज होकर नाचने लगे तो वह प्रेमलक्षणा भक्ति कहलाती है । ऐसा प्रेमी भक्त लोक को पावन बना देता है ॥७२॥ 
*प्राण कवल मुख राम कहि, मन पवना मुख राम ।* 
*दादू सुरति मुख राम कहि, ब्रह्म शून्य निज ठाम ॥७३॥* 
जैसे जल के द्रवत्व और अग्नि के उष्णत्व धर्म को जल या अग्नि से पृथक् नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार चित्त प्रतिक्षण परिणामस्वभाव वाला है, अतः राग-द्वेषादि धर्म ज्ञान से बाधित होने पर भी, निवृत्त नहीं होते । चित्तवृत्ति के विना रागद्वेषादि का भोग भी नहीं हो सकता । अतः चित्तवृत्ति को रोकने के लिये पहले-प्राणायाम व आसन से शरीर को स्थिर कर, प्रतिश्वास रामनाम का उच्चारण करते, हृदय में उसका ध्यान एवं मन से उसी का विचार करना चाहिये । लिखा है- 
“जल से अग्नि का शयन होता है, अन्धकार सूर्यप्रकाश से विनष्ट होता है; इसी प्रकार कलिकाल में भगवन्नाम कीर्तन से पापों का समूह नष्ट होता है ।” 
“विष्णु भगवान् का नाम मनुष्यकृत पापों को शमन करता है और पुण्य को उत्पन्न करता है, ब्रह्म लोक के भोगों से वैराग्य पैदा कर गुरु के चरण कमलों में भक्ति पैदा करता है, तत्त्वज्ञान पैदा कर जन्म-मरण की भ्रान्ति मिटा देता है, तथा पुरुष को ब्रह्मानन्द में लगाकर निवृत्त हो जाता है ॥७३॥” 
*दादू कहतां सुणातां राम कह, लेतां देतां राम ।* 
*खातां पीतां राम कह, आत्म कवल विश्राम ॥७४॥* 
कहते, सुनते, देखते, लेते, देते, खाते पीते, अर्थात् सभी कर्म करते हुए भी हरि स्मरण करता हुआ साधक ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ॥७४॥ 
*ज्यूं जल पैसे दूध में, ज्यूं पाणी में लौंण ।* 
*ऐसे आत्मराम सौं, मन हठ साधै कौंण ॥७५॥* 
जैसे दूध में जल मिला देने से वह जल भी दुग्धरूप हो जाता है और जल में लवण को डालने पर लवण भी जल रूप हो जाता है; उसी प्रकार साधक भी अन्दर और बाहर आकाश की तरह व्यापक, अखण्डानंदस्वरूप, स्वानुभवमात्रसंवेध्य आत्मा को प्रत्यक्ष करके कृतार्थ हो जाता है और काम, क्रोध, राग, द्वेष तथा तृष्णादि से शून्य होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ॥७५॥
(क्रमशः)

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