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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।*
*दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥*
*बुरा भला सिर जीव के, होवै इस ही मांहि ।*
*दादू कर्त्ता कर रह्या, सो सिर दीजै नांहि ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
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हम सभी को यह विचार है कि हम जानते हैं, क्या है कर्म और क्या कर्म नहीं है। कर्म और अकर्म को हम सभी जानते हुए दिखाई पड़ते हैं। परन्तु श्री कृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमानजन भी तय नहीं कर पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। गूढ़ है यह तत्व। तो फिर पुनर्विचार करना आवश्यक है। हम जिसे कर्म समझते हैं, वह कर्म नहीं होगा; हम जिसे अकर्म समझते हैं, वह अकर्म नहीं होगा।
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*हम किसे कर्म समझते हैं? हम प्रतिकर्म को कर्म समझे हुए हैं। किसी ने गाली दी हमे, और हमने भी उत्तर में गाली दी। हम जो गाली दे रहे हैं, वह कर्म न हुआ; वह प्रतिकर्म हु। किसी ने प्रशंसा की, और हम मुस्कुराए, आनंदित हुए; वह आनंदित होना कर्म न हुआ; प्रतिकर्म हुआ।*
क्या हमने कभी कोई कर्म किया हैं? अथवा प्रतिकर्म ही किया हैं? चौबीस घंटे, जन्म से लेकर मृत्यु तक, हम प्रतिकर्म ही करते हैं। हमारा सब करना हमारे भीतर से सहज-जात नहीं होता। हमारा सब करना हमसे बाहर से उत्पादित होता है, बाहर से पैदा किया गया होता है।
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किसी ने धक्का दिया, तो क्रोध आ जाता है। किसी ने फूलमालाएं पहनाईं, तो अहंकार खड़ा हो जाता है। किसी ने गाली दी, तो गाली निकल आती है। किसी ने प्रेम के शब्द कहे, तो गदगद हो प्रेम बहने लगता है। परन्तु ये सब प्रतिकर्म हैं। इसको ऐसा लें, किसी ने हमे गाली दी। और यदि हम गाली का उत्तर देते हैं, तो थोड़ा सोचें, यह गाली का उत्तर हमने दिया या देना पड़ा? यदि दिया, तो कर्म हो सकता है; देना पड़ा, तो प्रतिकर्म होगा।
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आप कहेंगे, दिया, चाहते तो न देते। तो फिर चाहकर प्रयास करके देखें, तब आपको पता चलेगा। हो सकता है, ओंठों को रोक लें, तो भीतर गाली दी जाएगी। तब आपको पता चलेगा, गाली मजबूरी है; बटन दबा दिया है किसी ने। और यदि कोई गाली दे, और हमारे भीतर गाली न उठे, तो कर्म हुआ। तो आप कह सकते हैं, मैंने गाली न देने का कर्म किया।
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*कर्म का अर्थ है, सहज। प्रतिकर्म का अर्थ है, प्रेरित। कारण है जहां बाहर, और कर्म आता है भीतर से, वहां कर्म नहीं है।*
हम आठों पहर प्रतिकर्म में ही जीते हैं। जागरूक अथवा आत्मन्वान कर्म में जीते हैं। उनके जीवन में प्रतिकर्म खोजे से भी नहीं मिलेगा।
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इसलिए श्रीकृष्ण यदि कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, कि बुद्धिमान भी नहीं समझ पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। अकर्म तो और भी कठिन है फिर। कर्म ही नहीं समझ पाते। प्रतिकर्म को हम कर्म समझते हैं; और अकर्मण्यता को हम अकर्म समझते हैं। अकर्मण्यता को, कुछ न करने को, बैठे-ठालेपन को हम अकर्म समझ लेते हैं। कुछ न करने को हम समझते हैं, अकर्म हो गया। *परन्तु अकर्म बहुत बड़ी क्रांति-घटना है। केवल न करने से अकर्म नहीं होता।क्योंकि जब आप बाहर नहीं करते, तो मन भीतर करता रहता है। जब आप बाहर करना बंद कर देते हो, मन भीतर करना शुरू कर देता है।*
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कृष्ण तो सोए हुए व्यक्ति को भी नहीं कहेंगे कि यह अकर्म में है। वे कहेंगे, *अकर्म का पता तो तब चलेगा, जब भीतर गहरे में कर्म की वासना न रह जाए, जब भीतर गहरे में मन शून्य और मौन हो जाए, जब भीतर गहरे में कर्म की सूक्ष्म तरंगें न उठें, तब होगा अकर्म।*
और जिसके भीतर अकर्म होगा, उसके बाहर प्रतिकर्म कभी नहीं होता। जिसके भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है।
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*कर्म सहज है, दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं, दूसरे के प्रत्युत्तर में नहीं, सहज, अपने से भीतर से आया हुआ, जन्मा हुआ।*
जिस व्यक्ति के भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है। और जिस व्यक्ति के भीतर गहन कर्म होता है, उसके बाहर प्रतिकर्म होता है।
इसलिए श्री कृष्ण यदि यह कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, गहन है यह राज, गूढ़ है यह रहस्य, बुद्धिमान भी तय नहीं कर पाते कि कर्म क्या है, अकर्म क्या है? अर्जुन, तुझे मैं कहूंगा वह गूढ़ रहस्य; क्योंकि उसे जो जान लेता, वह मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है।
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*जो व्यक्ति कर्म और अकर्म के बीच की बारीक रेखा को पहचान लेता है, वह मुक्ति के पथ को पहचान लेता है। जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच के बहुत सूक्ष्म विभेद को देख लेता है, उसके लिए इस जगत में और कोई सूक्ष्म बात जानने को शेष नहीं रह जाती।*
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*तो दो बातें स्मरण रख लें। हम जिसे कर्म कहते हैं, वह प्रतिकर्म है, कर्म नहीं। हम जिसे अकर्म कहते हैं, वह अकर्मण्यता है, अकर्म नहीं। श्री कृष्ण जिसे अकर्म कहते हैं, वह आंतरिक मौन है; वह अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव है; परन्तु बाहर कर्म का अभाव नहीं है।*
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*जब अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव होता है, तो कर्ता खो जाता है। क्योंकि कर्ता का निर्माण अंतर में उठी हुई कर्म की तरंगों का संघट है, जोड़ है। भीतर जो कर्म की वासना है, वही इकट्ठी होकर कर्ता बन जाती है। यदि भीतर कर्म की कोई तरंगें नहीं हैं, तो भीतर का कर्ता भी विदा हो जाता है। तब बाहर कर्म रह जाते हैं। परन्तु वे कर्म कर्ता-शून्य होते हैं। उनके पीछे अकर्ता होता है, अकर्म होता है। और चूंकि पीछे अकर्ता होता है, इसलिए प्रत्युत्तर से नहीं पैदा होते वे। वे सहज-जात होते हैं। जैसे वृक्षों में फूल आते हैं, ऐसे उस व्यक्ति में कर्म लगते हैं। आप में कर्म लगते नहीं; दूसरों के द्वारा खींचे जाते हैं।*
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हमारा सारा कर्म प्रतिकर्म है, इसे यदि ठीक से देख लिया, तो हमारा सारा अकर्म भीतरी कर्म बन जाता है, यह भी दिखाई पड़ जाएगा। और श्री कृष्ण कहते हैं, इसकी ठीक मध्यम रेखा को देख लेने से व्यक्ति मुक्त होता है। इसलिए अर्जुन, मैं तुझसे कर्म और अकर्म की विभाजक रेखा की बात करूंगा।
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