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*काल झाल तैं काढ कर, आतम अंग लगाइ ।*
*जीव दया यहु पालिये, दादू अमृत खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
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राम द्वेष दीरध उदधि, पंच होय लघु लार ।
जन रज्जब उतरत उभय, सप्त सुगम नर पाय ॥३७॥
राग द्वेष रूप दो बड़े समुद्र और साथ में पंच ज्ञानेन्दियों की चपलता रूप पांच छोटे समुद्र हैं, इन बड़े -छोटे दोनों समुद्र को पार करने पर पंचभूत, अहंकार और माया इन सात को पार करना नर के लिये सुगम हो जाता है वा पृथ्वी के सप्त समुद्रों को पार करना सुगम हो जाता है ।
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रज्जब अज्जब यहु मता१, सब सौ रह निर्वैर ।
उदधि२ उपाधि न डरपिये, जोख्यों३ जल जीव पैर ॥३८॥
यह सब से निर्वैर रहना रूप सिद्धान्त१ अदभुत है, समुद्र२ की उपाधि से न डरो, हानि३ होने की शंका तो जीव के राग-द्वेष रूप जल में तैरने में ही है ।
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अवगुण ढाँके और के, अपने अवगुण नाँहि ।
रज्जब अज्जब आतमा, निर्वैरी जग माँहिं ॥३९॥
निर्वैरी जीवत्मा संसार में अदभुत ही माना जाता है, वह दूसरों के अवगुणों को ढँकता है और अपने अवगुणों को नहीं ढँकता, प्रत्युत प्रकट करता है ।
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मारया जाय तो मारिये, मनवा वैरी माँहिं ।
जन रज्जब सो छाड़ि कर, मारण को कछु नाँहिं ॥४०॥
यदि तुझ से मारा जाय, तेरे भीतर मन रूपी शत्रु है उसे मार, उसको छोड़कर तेरे मारने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है ।
(क्रमशः)

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