शनिवार, 16 नवंबर 2019

= १७१ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*इंद्री अपने वश करै, सो काहे जाचन जाइ ।*
*दादू सुस्थिर आत्मा, आसन बैसै आइ ॥*
=========================
साभार ~ satsangosho.blogspot.com
.
नासमझी की बात है कि कोई कहे, अपने हाथ को वश में करना कठिन है। हाथ मेरा है, मैं हाथ से बड़ा हूं। हाथ अंग है, मैं अंगी हूं। हाथ अंश है, मैं अंशी हूं। हाथ एक हिस्सा हैं शरीर का, कोई भी हिस्सा अपने संपूर्ण से बड़ा नहीं होता, मेरी आंख मेरे बिना नहीं हो सकती, परन्तु मैं आंख के बिना हो सकता हूं। जैसे हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता। इस हाथ को काट दें, तो हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता, मर जाएगा, परन्तु मैं हाथ के बिना हो सकता हूं। मैं हाथ से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों के जोड़ से ज्यादा हूं।
.
श्री कृष्ण कहते हैं, यह तेरी भूल है, यदि तू सोचता हैं कि मैं कमजोर हूं और इंद्रियों पर वश न पा सकूंगा, तो तू गलत सोचता है। इंद्रियों पर तेरा वश है ही, परन्तु तूने कभी घोषणा नहीं की, तूने कभी स्मरण नहीं किया, तूने कभी समझा नहीं है। स्वामी तू है ही, परन्तु तुझे पता ही नहीं है कि तू स्वामी है और अपने हाथ से तू दास बना हुआ है।
.
दूसरी बात श्री कृष्ण यह कहते हैं कि इंद्रियों के पार मन है, मन के पार बुद्धि है, और बुद्धि के पार वह है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। और ध्यान रहे, जो जितना पार होता है, वह जिसके पार होता है, उससे ज्यादा शक्तिशाली होता है। जो जितना पार है, वह उतना शक्तिशाली है। जो जितना आगे है, वह उतना कमजोर है। जो जितना पीछे है, वह उतना शक्तिशाली है। वास्तव में शक्तिशाली को पीछे रखना पड़ता है, क्योंकि वह सम्हालता है।
.
*इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के पीछे मन है। मन शक्तिशाली है अर्जुन इंद्रियो से बहुत ज्यादा। इसलिए यदि मन चाहे, तो किसी भी इंद्रिय को तत्काल रोक सकता है। और जब मन सक्रिय होता है, तो कोई भी इंद्रिय तत्काल रुक जाती है।* आपके घर में आग लगी है, आप रास्ते से भागे चले जा रहे हैं। रास्ते पर कोई मिलता है, कहता है, नमस्कार ! आपको दिखाई नहीं पड़ता है। आंखें पूरी ठीक हैं। नमस्कार करता है, कान दुरुस्त हैं, सुनाई नहीं पड़ता है। आप भागे जा रहे हैं। क्यों?
.
मन कहीं और है, मन अटका है, घर में आग लगी है। अब यह समय नमस्कार करने का नहीं है और न लोगों को रास्ते पर देखने का है। कल वह व्यक्ति मिलता है और कहता है, रास्ते पर मिले थे आप। बड़े पागल जैसे दिखाई पड़ते थे। देखा, फिर भी आपने देखा नहीं; सुना, फिर भी आपने उत्तर नहीं दिया। बात क्या है? नमस्कार की, आप कुछ बोले नहीं? आप कहते हैं, न मैंने सुना, न मैंने देखा। मकान में आग लगी थी, मन वहां था।
.
यदि मन हट जाए, तो इंद्रियां तत्काल रुक जाती हैं। मन शक्तिशाली है। जहा मन है, इंद्रियां वहीं चली जाती हैं। जहा इंद्रियां हैं, वहां मन का जाना आवश्यक नहीं है। हम ले जाते हैं, इसलिए जाता है। यदि हम मन को कहीं ले जाएं, इंद्रियों को वहां जाना ही पड़ेगा। वे बलहीन हैं, उनकी शक्ति मन से आती है, मन की शक्ति इंद्रियों से नहीं आती।
.
फिर श्री कृष्ण कहते हैं, मन के पार बुद्धि है। बुद्धि जहां हो, मन को वहां जाना पड़ता है। बुद्धि जहां न हो, वहा मन को जाने की कोई आवश्यकता नहीं। परन्तु हमारी अवस्था उलटी है। मन जहां जाता है, वहीं हम बुद्धि को ले जाते हैं। मन कहता है, यह करो, हम बुद्धि से कहते हैं कि अब इसके लिए तर्क दो कि क्यों और कैसे करें। मन बताता है करने के लिए और बुद्धि केवल निर्णय खोजती है। बुद्धि से हम पूछते हैं कि चोरी करना है, तुम बताओ तर्क क्या है? तो बुद्धि कहती है कि सब धन चोरी है। जिनके पास है, उनकी भी चोरी है। तुम भी चोरी करो, संशय क्या है? हम बुद्धि से मन का समर्थन खोजते हैं।
.
*श्री कृष्ण कहते हैं, बुद्धि मन के पार है। है ही, क्योंकि जहां मन भी नहीं रह जाता, वहां भी बुद्धि रहती है। रात जब हम गहरी प्रगाढ़ निद्रा में खो जाते हैं, तो मन नहीं रह जाता। स्वप्न नहीं रह जाते, विचार नहीं रह जाते। मन गया। मन तो विचारों का जोड़ है। परन्तु सुबह उठकर हम कहते हैं कि रात बड़ा आनंद रहा, बड़ी गहरी नींद आई। न स्वप्न आए, न विचार उठे। किसको पता चला फिर कि हम गहरी नींद में रहे? किसने जाना आनंद था वह बुद्धि ने जाना।*
.
*बुद्धि मन के भी पार है। जो समर्थ हैं, वे बुद्धि से मन को चलाते हैं, मन से इंद्रियों को चलाते हैं। जो अपने सामर्थ्य को नहीं पहचानते और अपने हाथ से असमर्थ बने हैं, उनकी इंद्रियां उनके मन को चलाती हैं, उनका मन उनकी बुद्धि को चलाता है। वे शीर्षासन में जीते हैं; उलटे खडे रहते हैं। फिर उनको यदि सम्पूर्ण संसार ही उल्टा दिखाई पड़ता है, तो इसमें किसी का कोई दोष नहीं है।*
.
हम सबको भी जगत उलटा दिखाई पड़ता है। हम एक बहुत गहरे शीर्षासन में हैं। वह गहरा शीर्षासन शरीर के शीर्षासन से भी गहरा है, क्योंकि सब उलटा किया हुआ है। इंद्रियों की मानकर मन चल रहा है, मन की मानकर बुद्धि चल रही है और बुद्धि प्रयास करती है कि परमात्मा भी हमारी मानकर चले।
.
*श्री कृष्ण कहते हैं, इंद्रियां मानें मन की, मन माने बुद्धि की, बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित हो, बुद्धि माने परमात्मा की। तब व्यक्तित्व सीधा, सरल, ऋजु और तब व्यक्तित्व धार्मिक, आध्यात्मिक हो पाता है।*

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें