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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*साधु सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ ।*
*दादू पंक परसै नहीं, कर्म न लागै कोइ ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com
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हमारी बुद्धि सदा असम्यक है। असम्यक बुद्धि का अर्थ है कि कभी इस तरफ डोल जाती है, कभी उस तरफ डोल जाती है। हमारी चाल ऐसी है, जैसे कभी नट को रस्सी पर चलते हुए देखा हो। देखा है, नट को रस्सी पर चलते हुए? हाथ में एक डंडा लिए रहता है। कभी बाएं डोलता, कभी दाएं डोलता। कभी बाएं, कभी दाएं। रस्सी पर चलता है; बाएं-दाएं डोलता है।
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यह भी विचार में ले लेना कि जब वह बाएं डोल रहा है, तो उसका अर्थ आप जानते हैं कि बाएं क्यों डोलता है? बाएं इसलिए डोलता है कि जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह बाएं डोलता है संतुलन करने को। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है कि कहीं दाएं गिर न जाऊं, तो वह तत्काल बाएं डोलता है। जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह दाएं डोलता है।
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हमारी बुद्धि नट जैसी है। रस्सी पर बारीक, कभी धर्म की तरफ डोलते, कभी अधर्म की तरफ; कभी हिंसा की तरफ, कभी अहिंसा की तरफ; कभी पदार्थ की तरफ, कभी परमात्मा की तरफ। परन्तु डोलते ही रहते हैं, समत्व को उपलब्ध नहीं होते। ऐसे नहीं, जैसे कोई व्यक्ति जमीन पर खड़ा है; डोलता ही नहीं, सीधा। जैसे दीए की लौ ऐसे कमरे में हो, जहां के सब द्वार बंद हैं। हवा का कोई झोंका भीतर नहीं आता। ज्योति सीधी है; जरा भी कंपती नहीं; खड़ी है।
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*बुद्धि जब ऐसी खड़ी होती है, अन-डोली, कंपनमुक्त, मध्य में; न बाएं, न दाएं; न इस पक्ष में, न उस पक्ष में; जब मध्य में, समत्व को, समता को, समाधि को बुद्धि उपलब्ध होती है, तब वह समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही इस जगत के जाल, झंझट, समस्याओं की गांठ को काट पाता है। अन्यथा वह स्वम् ही उलझ जाता है, अपने ही कंपन से उलझ जाता है। हम अपने ही कंपन से उलझते चले जाते हैं, चौबीस घंटे।
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कभी अपने मन की इस असम्यक, असम अवस्था की परीक्षा करना, निरीक्षण करना। देखना सुबह से एक दिन सांझ तक कि मन कैसा डोलता है, कितना डोलता है। ऐसा मन है। ऐसा ही है, पूरे समय। खोजेंगे अपने मन को, तो ऐसा ही पाएंगे, नट रस्सी पर जितना कंपता है, उससे भी ज्यादा कंपता हुआ। ऐसे मन से संशय नहीं कट सकता। संशय तो कटेगा, समत्व होगा तब; समता होगी तब; बीच में कोई ठहरेगा तब; संतुलन होगा तब।
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तो श्री कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हो और ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन। ज्ञान सच में ही तलवार है। सम्भवतय वैसी कोई और तलवार नहीं है। क्योंकि जितना सूक्ष्म ज्ञान काटता है, उतना सूक्ष्म और कोई तलवार नहीं काटती। *संशय बहुत अदभुत है। गहरे से गहरे और बारीक से बारीक अस्त्र को भी बेकार छोड़ जाता है; कटता ही नहीं। केवल ज्ञान से कटता है।*
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*ज्ञान का अर्थ? ज्ञान का अर्थ है, समत्वबुद्धिरूपी योग। वही, जब बुद्धि सम होती है, तो ज्ञान का जन्म होता है। बुद्धि की समता का बिंदु ज्ञान के जन्म का क्षण है। जहां बुद्धि संतुलित होती है, वहीं ज्ञान जन्म जाता है। और जहां बुद्धि असंतुलित होती है, वहीं अज्ञान जन्म जाता है। जितनी असंतुलित बुद्धि, उतना घना अज्ञान। जितनी संतुलित बुद्धि, उतना गहरा ज्ञान। पूर्ण संतुलित बुद्धि, पूर्ण ज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि, पूर्ण अज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि होती है विक्षिप्त की, पागल की, इसलिए उसके संशय का कोई हिसाब ही नहीं है। पागल, विक्षिप्त का संशय पूर्ण है। अपने पर ही संशय करता है पागल।*
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विक्षिप्त का संशय पूर्ण हो जाता है, ज्ञान शून्य हो जाता है। विमुक्त का संशय शून्य हो जाता है, ज्ञान पूर्ण हो जाता है। *दो छोर हैं, विक्षिप्त और विमुक्त। और हम बीच में हैं, नट की तरह डोलते हुए। हम अपनी रस्सी पकड़े हुए हैं, कभी विक्षिप्त की तरफ डोलते, कभी विमुक्त की तरफ।*
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श्री कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन। यदि अर्जुन इतना भी तय कर ले कि हां, मैं काटने को राजी हूं, तो कट गया। क्योंकि संशय तय नहीं करने देता। इतना भी तय कर ले।
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*अर्जुन पूछता चला जाएगा प्रश्न पर प्रश्न। उत्तर कृष्ण अनेको बार दे चुके हैं इसके पहले भी, अनेको बार देंगे इसके बाद भी; परन्तु अर्जुन प्रश्न उठाए चला जाता है। इसके पहले कि श्री कृष्ण का उत्तर हो, वह नए प्रश्न खड़े कर देता है। प्रश्न पुराने ही हैं; नया कोई प्रश्न नहीं है। प्रश्न वही है; शब्द बदल जाते हैं; आकार बदल जाता है। कृष्ण के उत्तर भी नए नहीं हैं। उत्तर एक ही है। यदि अर्जुन कहता, मैं डाल-डाल, तो कृष्ण कहते, मैं पात-पात। ठीक, तुम उधर प्रश्न खड़ा करते हो, हम इधर उत्तर देते हैं। परन्तु अथक है श्री कृष्ण का परिश्रम, इतना परिश्रम बहुत कम गुरुओं ने लिया है। अथक है परिश्रम, उत्तर मिल जाए अर्जुन को, इसकी चेष्टा सतत श्री कृष्ण करते चले जाते हैं।*
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*जो व्यक्ति ज्ञान की तलवार उठा ले, समत्व बुद्धि की, संशय को काट डाले, संशय के साथ ही अंतिम बाधा गिर जाती है और वे द्वार खुल जाते हैं जो कि परमात्मा के हैं, आनंद के, मुक्ति के, परम शांति के, परम निर्वाण के हैं।*

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