मंगलवार, 5 नवंबर 2019

गुरुदेव का अंग १४२/१४५


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*उपजनि* 
*दादू सुध बुध आत्मा, सतगुरु परसे आइ ।* 
*दादू भृंगी कीट ज्यों, देखत ही ह्वै जाइ ॥१४२॥* 
*दादू भृंगी कीट ज्यूं, सतगुरु सेती होइ ।* 
*आप सरीखे कर लिये, दूजा नाहीं कोइ ॥१४३॥* 
भृंगी से डंसा हुआ कीड़ा उसके शब्द को सुनकर, उसके भय से भृंगी का ध्यान करता हुआ भृंगी ही बन जाता है । ऐसे ही सद्गुरु के ज्ञानबोधक वाक्यों को सुनकर उन्हीं का ध्यान करता हुआ शुद्ध आत्मा होकर सब के देखते-देखते ब्रह्मरूप हो जाता है । ब्रह्मरूप होने पर उस साधक का द्वैत भी नष्ट हो जाता है ॥१४२-१४३॥ 
*दादू कच्छब राखै दृष्टि में, कुँजों के मन माहिं ।* 
*सतगुरु राखै आपणां, दूजा कोई नाहिं ॥१४४॥* 
*बच्चों के माता पिता, दूजा नाहीं कोइ ।* 
*दादू निपजै भाव सूं, सतगुरु के घट होइ ॥१४५॥* 
जैसे कछुआ अपने बच्चों को दर्शनमात्र से पालता है, और मछली अपने बच्चों को मन से ध्यान द्वारा पालती है, या जैसे माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं; वैसे ही सद्गुरु भी अपने शिष्य का मन से ही ध्यान रखते हैं और उस की सब प्रकार से रक्षा करते हैं । तथा अपने संकल्प द्वारा ही उसके मनोविकारों को नष्ट करते रहते हैं । इस तरह वे शिष्य को ब्रह्मभाव प्राप्त करा देते हैं । लिखा है- 
“कछुआ अपने बच्चों को देखने मात्र से पालता है, और मछली अपने बच्चों को ध्यान से पालती है ॥”१४४-१४५॥
(क्रमशः)

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