सोमवार, 11 नवंबर 2019

= *दया निर्वैरता का अंग ९१(१७/२०)* =

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*दादू दुनियां सौं दिल बांध करि, बैठे दीन गँवाइ ।*
*नेकी नाम बिसार करि, करद कमाया खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१* 
मुसलमान को मारना, मुरगा माफिक१ नाँहिं । 
पंचो बरियाँ२ बांग३ दे, मुल्ला समझो माँहि ॥१७॥ 
मुसलमान को मुरगा मारना योग्य१ नहीं है, वह तो पांचों समय२ आवाज३ देता है, हे मुल्ला ! कुछ विचार तो करो अपने दीनी भाई को भी क्यों मारते हो ? 
वन्दनीक१ वाराह सु बधिये२, मुल्ला मुरगा मारे । 
दोन्यों दृष्टि विहूणे३ दीसैं, इष्टों कौन विचारे ॥१८॥ 
हिन्दू पूजनीय१ वाराह को मारते२ हैं और मुल्ला दीनी मुरगा को मारता है, दोनों ही विचार दृष्टि से रहित३ दिखाई देते हैं, इष्ट का विचार कौन करें ? 
कुल१ में मोहित२ मालिक है, सब हूं में सुबहान३ । 
रज्जब यूं जाण जाहिर४, रहम५ में रहमान६ ॥१९॥ 
हे भ्रम२ में पड़े हुये मानव ! वह प्रभु सब१ में है, उस पवित्र३ प्रभु को सब में जान, वह दयालु६ दया५ में वृति स्थित रहने से ही प्रकट४ होता है, ऐसा समझ कर दया निर्वेरता धारण कर । 
मुल्ला मन बिस्मिल१ करो, तजहु स्वाद का घाट२ । 
सब सूरत३ सुबहान४ की, गाफिल५ गला न काट ॥२०॥ 
हे असावधान५ मुल्ला ! किसी भी जीव का गला मत काट, अपने मन को घायल१ कर, जिह्वा के स्वाद के रंग२ ढंग छोड़ सभी रूप३ पवित्र प्रभु४ के हैं । 
(क्रमशः)

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