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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*अपणी जाणै आप गति, और न जाणै कोइ ।*
*सुमरि सुमरि रस पीजिये, दादू आनन्द होइ ॥८४॥*
अवेद्य होने से उसे दूसरा जान भी नहीं सकता । वह स्वयं ही अपने को जानता है । अतः उसका दूसरा ज्ञाता, वक्ता असम्भव है । अतः मैं कैसे कह सकता हूँ कि राम ऐसा है । अर्थात् वह तो अनुपम है । इसलिये साधक का यही कर्तव्य है वह राम के भजन से ब्रह्मानन्द का रसपान करे । भागवत में लिखा है-
“यह भागवत पुराण सम्पूर्ण वेद-वेदांगो के पके हुए और रसभरे फल के समान है । इसके रस का भागवत लोग कल्पपर्यन्त, बार-बार इस पृथ्वी पर रहते हए पान करें” ॥८४॥
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*करणी बिना कथणी*
*दादू सबही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार ।*
*सब कुछ इन ही मांहि है, क्या करिये विस्तार ॥८५॥*
वेद पुराण शास्त्रों के अध्ययन का मुख्य प्रयोजन मनुष्यों का यही है कि श्री भगवान् तथा उनके नाम में दृढ़ निष्ठा पैदा हो जाय । अन्यथा सब व्यर्थ है । क्योंकि भगवत्स्मरण से साधक अनायास ही सब कुछ फल पा सकता है । भागवत में लिखा है-
“जिसके नाम श्रवणमात्र से मनुष्य निर्मल हो जाता है तो फिर उस तीर्थपद भगवान् के दासों के लिये प्राप्त करने योग्य क्या शेष रह जाता है ।”
हनुमन्नाटक में लिखा है-
“जो सारे वेदों का पढ़ा हुआ हो, सब शास्त्रों में पारंगत हो, विधि-निषेध का पालन करने वाला स्नातक हो या अग्निहोत्री हो, सब तीर्थों का भ्रमण कर चुका हो, फिर भी यदि उसके हृदय में राम की भक्ति न हो तो ये सब पूर्वोक्त साधन व्यर्थ ही है ॥८५॥”
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*नाम अगाधता*
*पढि पढि थाके पंडिता, किनहुँ न पाया पार ।*
*कथि कथि थाके मुनिजना, दादू नाम आधार ॥८६॥*
परात्पर परमात्मा वाणी का विषय नहीं, तथा वह अगाध है, शास्त्रों में निष्णात विद्वान् भी पार नहीं पा सकते ।
गीता में लिखा है-
“मैं वेदों के पढ़ने, तपस्या, दान तथा यज्ञ से भी नहीं जाना जा सकता हूँ ।” श्रुति में भी कहा है-
“जहाँ से वाणी विना जाने ही लौट आती है तथा मन भी जिसे नहीं जान सकता, अनेक तपःस्वाध्यायपरायण मुनि भी जिसे नहीं जान पाये; उसके भक्त उसकी अनन्य भक्ति द्वारा, हे अर्जुन ! तूं जिस रूप को देख रहा है, उसे जान जाते हैं और उस में अन्तर्भूत(समाविष्ट) हो जाते हैं ।” और भी लिखा है-
‘अनेक शास्त्रों की कथारूपी रोमन्थ(जुगाली) करने से कोई लाभ नहीं; किन्तु तत्त्वज्ञ पुरुषों द्वारा आन्तर ज्योति को खोजना चाहिये ।”
“चारों वेद तथा धर्मशास्त्रों के पठनमात्र से कोई लाभ नहीं, जब तक वह ब्रह्म तत्त्व को नहीं जान लेता । जैसे चम्मच साक-डाल में रहती अवश्य है, परन्तु उनका स्वाद नहीं जान पाती, उसके पल्ले तो तापमात्र ही पड़ता है, वैसे ही ब्रह्मतत्त्व को जाने विना सब शास्त्रों का अध्ययन भी व्यर्थ है ।” अन्यत्र भी लिखा है-
“जप, तप तथा यज्ञ और अनेक तीर्थों में परिभ्रमण या नानाविध शास्त्रों का अवलोकन व्यर्थ ही है । अतः भगवान् शंकर का भजन करो जिससे तुम्हारा कल्याण हो ॥८६॥”
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*निगम हि अगम विचारिये, तऊ पार न आवै ।*
*ताथैं सेवग क्या करै, सुमिरण ल्यौ लावै ॥८७॥*
निगमागम का निरन्तर विचार करने पर भी उस परमात्मा का अन्त नहीं पाया जा सकता, कारण कि वह अनन्त है । अतः अपने मन को परमात्मा के ध्यान में ही लगाओ ॥८७॥
(क्रमशः)

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