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*आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार ।*
*निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
इस अंग में दया और निर्वैरता संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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मुख्य दया निर्वैर ह्वै, सब जीव हुं प्रतिपाल ।
जो रज्जब तिस प्रणि ने, मेल्या मंगल माल ॥१॥
निर्वैर होना ही मुख्य दया है, जो सभी जीवों की रक्षा करता है तो उसी प्राणी ने जगत के लिये मंगल रूप माल संचय करके रक्खा है ।
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निर्वैर होत वैरी नहीं, चौरासी में कोय ।
रज्जब राखत और को, अपनी रक्षा होय ॥२॥
निर्वैर होते ही चौरासी में कोई भी वैरी नहीं होता, अन्य की रक्षा करने से अपनी ही रक्षा होती है, अत: निर्वैर ही रहना चाहिये ।
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चोट१ न काहू को करै, तो चोट न इसको होय ।
जन रज्जब निर्वैर सौं, वैर करै नहिं कोय ॥३॥
किसी को भी आधात१ न पहुँचावे तो इस प्राणी पर भी आधात नहीं आता, निर्वैर प्राणी से कोई भी बैर नहीं करता ।
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विघ्न जु टालत और के, अपने विघ्न सु जाँहिं ।
नेकी सौं नेकी बधै, समझ देख मन माँहिं ॥४॥
दूसरों को विघ्न टालने से अपने विघ्न टल जाते हैं । विचार द्वारा मन में देख, भलाई से भलाई ही बढती है ।
(क्रमशः)

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