शनिवार, 2 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू होना था सो ह्वै रह्या, जनि बांछे सुख दुःख ।*
*सुख मांगे दुख आइसी, पै पीव न विसारी मुख ॥*
*ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।*
*साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

मनुष्य किसी फिल्म को देखने गया। फिल्म देखने बैठा, अंधेरा हो गया, कमरे में तस्वीरें चलने लगीं परदे पर। इतना ही अगर मनुष्य याद रख सके कि मैं साक्षी हूं और परदे पर जो तस्वीरें चल रही हैं, केवल प्रकाश - छाया का खेल है - तो कहानी मनुष्य को बिलकुल प्रभावित न करेगी। कोई किसी की हत्या कर दे तो मनुष्य एकदम विचलित न हो जाएगा।
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फिल्म में हत्या हो जाती है, लोग एकदम रीढ़ सीधी करके बैठ जाते हैं; जैसे कुछ सचमुच कुछ घट रहा है। कोई मारा जाता है तो कई की आंखें गीली हो जाती हैं, लोग रूमाल निकाल लेते हैं। वह तो अंधेरा रहता है, इसलिए अच्छा है। अपना जल्दी से आंख पोंछ कर अंदर रख लिया, रूमाल को फिर खीसे में कर लिया। लोगों के रूमाल गीले हो जाते हैं फिल्मों में। जब तक रूमाल गीले न हों तब तक वे कहते ही नहीं कि फिल्म अच्छी थी। रोने का अभ्यास ऐसा पुराना है कि जो भी रुला दे, वही लगता है कि कुछ गजब का काम हुआ। लोग हंसने लगते हैं, रोने लगते हैं !
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मनुष्य ने देखा कि छाया चल रही है ! वहां कुछ भी नहीं है। परदे पर कुछ भी नहीं है। लेकिन छाया मनुष्य को जकड़ लेती है। मनुष्य उसके साथ डोलने लगते हो। मनुष्य में क्रोध पैदा हो सकता है, प्रेम पैदा हो सकता, वासना जग सकती, उत्तेजना हो सकती, सब कुछ घट सकता है - और परदे पर कुछ भी नहीं है। मनुष्य भूल ही जाता है।
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उस भूल को ही सुधारना है, कुछ और करना नहीं। दौड़ कर परदा नहीं फाड़ डालना है कि बंद करो; कि पीछे जा कर प्रोजेक्टर नहीं तोड़ देना है कि बंद करो - यह क्या मजाक कर रखी है कि सिर्फ प्रकाश - छाया का खेल है और लोगों को परेशान कर रहे हो? इतने लोग रो रहे हैं नाहक ! अरे जिंदगी काफी है रोने के लिए। बंद करो ! यह नहीं करते। इसकी कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जो रोना चाहते हैं उनके लिए परदे को रहने दो। जिनकी अभी रोने में उत्सुकता है, पैसे चुका कर जो रोने आए हैं, उनके खेल में बाधा मत डालो। *जो खेलना चाहता है, खेले। मनुष्य सिर्फ इतना समझे कि वह साक्षी है और यह सब जो रहा है, ऊपर - ऊपर है। खेलने दे इन लहरों को ! उठने दे इन लहरों को ! नाचने दे इन लहरों को ! जैसे स्वभाव से ये उठी हैं, ऐसे ही स्वभाव से शांत हो जाएंगी। मनुष्य साक्षी - भाव से किनारे पर बैठा रहे।*
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कोई योग नहीं है। कुछ साधन नहीं करना है। सीधी छलांग है ! मनुष्य सिर्फ देखता रहे ! क्रोध उठे तो कहे कि ठीक है, स्वाभाविक है। काम उठे तो कहे कि ठीक है, स्वाभाविक है। देखने वाले बना रहे। मनुष्य विचलित न हो द्रष्टा से। साक्षी न कंपे बस। और सब कंपता रहे, सारा संसार तूफान में पड़ा रहे - मनुष्य तूफान के मध्य साक्षी में ठहरा रहे। एक ऐसी घड़ी है, जब सब होता रहता है और मनुष्य जानता है : साक्षी बना रहता है ! तब मनुष्य ने आंधी के बीच में भी एक शांत स्थान खोज लिया। मनुष्य अपने केंद्र पर आ गया। *ये जो नदी में इतनी गन्दगी उठी है, यह अपने से शांत हो जाएगी। मनुष्य इसमें कूद कर इसको शांत करने की कोशिश करेगा तो और लहरें उठ आएंगी। देखा कभी, जब मनुष्य शांत होने की ज्यादा चेष्टा करता है, और अशांत हो जाता है।*
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*सांसारिक आदमी को संसार की ही चिंता है; अशांतियां हैं, ठीक है। यह धार्मिक आदमी को एक नई अशांति है कि इनको शांत भी होना है। बाकी अशांतियां तो हैं ही, बाकी तो सब उपद्रव इनके भी लगे ही हुए हैं - घर है, द्वार है, गृहस्थी है, दूकान - बाजार है, हार - जीत है - सब लगा हुआ है - सफलता - असफलता, वह सब तो है; और एक नया रोग : इनको शांत होना है !* कम - से - कम उतना रोग सांसारिक आदमी को नहीं है। वह कहता है, अशांति है, ठीक है। उसकी अशांति इतनी भयंकर नहीं है जैसी इस आदमी की अशांति हो जाती है, जो कि इसको शांत भी करना चाहता है।

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