🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू होना था सो ह्वै रह्या, जनि बांछे सुख दुःख ।*
*सुख मांगे दुख आइसी, पै पीव न विसारी मुख ॥*
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जब मनुष्य कभी मंदिर जाता है, पूजा करने बैठता है, प्रार्थना करने बैठता है; ध्यान करने - देखा, उस समय वह और भी अशांत हो जाते है ! इतना दूकान पर भी नहीं होता, बाजार में भी नहीं होता। क्या होता है ? मनुष्य उतर पड़ा नदी में, चेष्टा करने लगा लहरों को शांत करने की। चेष्टा से तो और लहरें उठ आएंगी। कृपा करके किनारे पर बैठे।
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बुद्ध के जीवन में उल्लेख है, बुद्ध गुजरते हैं एक पहाड़ से। धूप है, प्यासे हैं। आनंद को कहते हैं कि आनंद, तू पीछे लौट कर जा। कोई दो मील पीछे हम एक झरना छोड़ आए हैं, वहाँ से तू पानी भर ला, मुझे प्यास लगी है। वे एक वृक्ष के नीचे बैठ कर विश्राम करते हैं, आनंद जाता है भिक्षा - पात्र ले कर। लेकिन जब वह पहुंचता है उस झरने पर, तो ठीक उसके सामने ही कुछ बैलगाड़ियां उस झरने में से निकल गईं, तो सारा पानी कूड़ा - कर्कट से भर गया। जमी कीचड़ उठ आई ऊपर, सूखे पत्ते ऊपर तैरने लगे, सड़े पत्ते ऊपर तैरने लगे। वह पानी पीने योग्य न रहा। वह वापिस लौट आया।
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उसने बुद्ध को कहा, वह पानी पीने - योग्य नहीं है। आगे चल कर कोई चार - छह मील दूर नयी - हम अभी पहुंचेंगे - नदी है, वहां से मैं पानी ले आता हूं। आप विश्राम करें, या चलते हों तो मेरे साथ चले चलें, लेकिन वह पानी पीने - योग्य नहीं रहा। बुद्ध ने जिद्द की। उन्होंने कहा, तू वापिस जा और वही पानी ले आ। जब बुद्ध ने कहा तो आनंद इंकार भी न कर सका। फिर गया। झिझकते हुए गया कि वह पानी बिलकुल बेकार है। लेकिन वहाँ जा कर देखा कि तब तक तो पानी स्वच्छ हो गया। आना - जाना आनंद का दो मील, उस बीच धूल फिर बैठ गई, कीचड़ बह गया, पत्ते जा चुके, झरना तो ऐसा स्वच्छ, स्फटिक - मणि जैसा हो गया ! वह बड़ा चकित हुआ !
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तब उसे बुद्ध की जिद्द का अर्थ दिखाई पड़ा। वह पानी भर कर लाया, नाचता हुआ आया। उसने पानी बुद्ध के चरणों में रखा, सिर चरणों में झुकाया और उसने कहा कि मुझे ठीक - ठीक सूत्र दे दिया। यही मेरे चित्त की दशा है। आपने अच्छा किया मुझे वापिस भेजा। मैं रास्ते में सोचता जाता था कि अगर पानी शुद्ध न हुआ तो अब की बार उतर कर झरने में कीचड़ - कर्कट को अलग करके किसी तरह भर लाऊंगा। अगर मैं उतर जाता तो फिर गंदा हो जाता। उतरने से ही तो गंदा हुआ था, बैलगाड़ियां निकल गई थीं। मैं किनारे पर ही रहा और पानी शांत हो गया ! किसी ने शांत न किया और शांत हो गया !
*'आश्चर्य ! अनंत समुद्ररूप मुझमें जीवरूप तरंगें अपने स्वभाव से उठती हैं, परस्पर लड़ती हैं, खेलती हैं, और लय होती हैं।*
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*'स्वभावत: प्रविशन्ति !*
अपने स्वभाव से ही सब बनता, मिटता, खोता रहता है। मनुष्य दूर साक्षी हो जाये ! देखता रहे। जिसे मनुष्य भूलना चाहता है उसे भूल नहीं पाता ! क्योंकि भूलने के लिए भी तो बार - बार याद करना पड़ता है, उसी में तो याद बन जाती है। किसी को भूलना है, कैसे भूलो? भूलने की चेष्टा में तो याद सघन होगी। भूलने से कभी कोई किसी को भूल पाया? लड़ने से कभी कोई जीता?
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इस जीवन का यह विरोधाभासी नियम ठीक से समझ लेना : जिससे मनुष्य लड़ा उसी से वह हारेगा ! लड़े ही न ! संघर्ष सूत्र नहीं है विजय का। साक्षित्व सूत्र है। विचार चल रहे हैं, वे अपने स्वभाव से ही चले जाएंगे। मनुष्य ने अगर उत्सुकता न ली, तो बार - बार न आएंगे। अगर उत्सुकता ली - पक्ष में या विपक्ष में - तो दोस्ती बनी।
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कोशिश करे, कल मंत्र कोई भी चुन ले - राम राम राम - और कोशिश करे कि विचार न आये। विचारों की पूरी फौज चली आएगी और इसके पहले कभी ऐसा न हुआ था। विरोध, रस की घोषणा है। लड़े न, अन्यथा हारेगा। *इस सूत्र की महत्ता को, महिमा को, गरिमा को समझो। जो हो रहा है, हो रहा है। न तुमसे पूछ कर शुरू हुआ है, न तुम से पूछ कर बंद होने का कोई कारण है। जो हो रहा है, होता रहा है, होता रहेगा - मनुष्य देखता रहे। बस इसमें ही क्रांति घट जाती है।*
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दुनियां में दो तरह के लोग हैं। एक हैं - भोगी। भोगी कहते हैं. जो हो रहा है, यह और जोर से हो। एक हैं - योगी, जो कहते हैं. जो हो रहा है, यह बिलकुल न हो। ये दोनों ही संघर्ष में हैं। योगी कह रहा है, बिलकुल न हो, जैसे कि उसके बस की बात है ! जैसे उससे पूछ कर शुरू हुआ हो ! जैसे उसके हाथ में है !
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भोगी कह रहा है, और जोर से हो, और ज्यादा हो ! सौ साल जीता हूं दो सौ साल जीऊं। एक स्त्री मिली, हजार स्त्रियां मिलें। करोड़ रुपया मेरे पास है, बीस करोड़ रुपया मेरे पास हो। भोगी कह रहा है, और जोर से हो; वह भी सोच रहा है. जैसे उससे पूछ कर हो रहा है; उसकी अनुमति से हो रहा है; उसकी आकांक्षा से हो रहा है। दोनों की भ्रांति एक है। दोनों विपरीत खड़े हैं, एक दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं; लेकिन दोनों की भ्रांति एक है। भ्रांति यह है कि दोनों सोचते हैं कि संसार उनकी अनुमति से चल रहा है। चाहें तो बढ़ा लें, चाहें तो घटा दें।

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