🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
.
*मन प्रबोध*
*दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार ।*
*फिर पीछै पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार ॥२६॥*
दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करके यदि हरि नाम के महत्त्व को नहीं जाना यह मन अतिमूढ ही है । हरिनाम की महिमा भागवत आदि ग्रन्थों में अति प्रसिद्ध है । लिखा है-
“किसी संकेत से, हँसी में या अवहेलना में-किसी भी तरह यदि हरिनाम ले लिया जाय तो उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं ॥”
“गिरते, पड़ते, दुःख से बिलबिलाते एवं लाचारी से भी हरिनाम लेते हुए, हरि को नमस्कार करने मात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।”
अतः समय रहते ही हरिनाम साधना में जुट जाना चाहिये । अन्यथा अन्त समय में पश्चात्ताप करना पड़ेगा ।
शास्त्र में मूर्ख के लक्षण बताते हुए कहा है-
शीतकाल के बीतने पर जो गरम कपड़े की इच्छा करे, रात्रि में भोजन की इच्छा करे, निशा के अन्त में खेलने की, यौवन के अन्त में विवाह की इच्छा करे, पानी के निकल जाने पर पुल बांधे, बुढापे में तीर्थ यात्रा करे, धन के नष्ट होने पर दान की इच्छा करे-ये सब मूर्ख ही कहलाते हैं ॥२६॥
.
*दादू राम संभाल ले, जब लग सुखी सरीर ।*
*फिरि पीछै पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर ॥२७॥*
बचपन से ही हरिनाम साधना में लग जाना चाहिये । यह बचपन तो कुछ ही दिनों का है, वह भी यौवन से ग्रस्त है । यौवन भी बुढापे से ग्रस्त है । तथा बुढापा प्रमाद से ग्रस्त है । अतः अभी से हरिभजन में लग जाओ ! अन्यथा अन्त में पछताना पड़ेगा ! भर्तृहरि जी ने लिखा है-
“जब तक यह शरीर स्वस्थ तथा निरोग है, तथा जरा से ग्रसित नहीं हुआ है, तथा इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, और आयु का क्षय न हो उससे पहले ही प्रयास करके स्वकल्याण में लग जाओ; अन्यथा बुढापे में मरने का समय आने पर भगवान् का नाम जपने की बात ऐसी ही होगी जैसे घर में आग लगने पर कुआ खोदकर उसके जल से आग बुझाने की बात करना ! ॥२७॥
.
*दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम ।*
*सुख सागर चलि जाइए, दादू तज बेकाम ॥२८॥*
यह संसार दुःख का समुद्र है । जैसे लिखा है-
“निर्धन धन की चिन्ता करता रहता है । धनवान् को धन की सुरक्षा की ही चिन्ता रहती है, उससे वह व्याकुल रहता है । जिसके स्त्री नहीं है वह स्त्री प्राप्ति के उपायों में डूबा रहता है । स्त्रीवाला पुत्र की चिन्ता में जलता रहता है । सन्तानवाला पुरुष भी नाना रोगों से पीड़ित रहता है । इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि जीव को प्रायः दुःख ही दुःख स्टेट रहते हैं ।
सुखी जीवन किसी का भी नहीं है । जिनके संतान नहीं है वे माता-पिता सन्तान के लिये चिरकाल तक चिन्तित रहते हैं कि पुत्र कैसे हो । तथा गर्भपात का भी भय रहता है । वे प्रसव पीड़ा के भय से भी पीड़ित रहते हैं । प्रसव होने से ग्रह-रोगों से पीड़ित रहते हैं । लड़का पढ़ता नहीं तो उसके मूर्ख रह जाने का डर बना रहता है ।
उपनयन संस्कार होने पर भी यह भय रहता है कि लड़का अपठित(मूर्ख) है इसका विवाह कैसे होगा । पण्डित होने पर भी युवावस्था में ही कहीं परदार के संग तो नहीं कर लेगा ! इस भय से दुःखी रहते हैं ।
यदि कुटुम्ब में दरिद्रता है तो यह सब से बड़ा दुःख है । धनी होने पर भी, उसके माता-पिता को, यह डर रहता है कि कहीं यह अल्पावस्था में ही तो नहीं मर जायेगा ! ऐसे माता-पिता के दुःखों का अन्त नहीं है ।”
इन्द्रलोक तथा ब्रह्मलोक में पहुँचने पर वहाँ से गिरने का भय रहता है । और पाताल लोक में भयंकर प्राणियों का भय रहता है । विचार करने से जीवन में दुःख ही दुःख मालुम पड़ता है ।
भर्तृहरि जी ने लिखा है-
“भोगों में रोग का भय है तो सुख में उसके नाश का भय है । धनी को राजा का भय है तो नौकर को स्वामी का भय । विजयी को शत्रु का भय तो कुल में कोई कुयोषित् न आ जाय-इसका भय रहता है । मान में अपमान(ग्लानि) का भय, गुणी को दुष्टों का भय, एवं शरीर को मृत्यु का भय सदा ही बना रहता है । हे मित्र ! विचार करने पर, केवल भगवान् का धाम ही एकमात्र निर्भय स्थान है । ऐसे संसार को दुःखमय जानकर परमात्मा से प्रीति करो ।”
राम तो सच्चिदानन्द होने से सदा सुखमय ही हैं । ब्रह्मरूप होने से उसमें दुःख की कल्पना भी नहीं हो सकती । किन्तु उसका जो ध्यान करता है वह भी सुखमय ही बन जाता है । लिखा है-
“मैं अखण्ड, आनन्दस्वरूप, ज्ञानमय, परात् पर एवं सच्चिदानन्द हूँ । जैसे आकाश को मेघ छू भी नहीं सकता, वैसे ही ज्ञानी को संसार दुःख छू नहीं सकता । अतः दुःख निवृत्ति के लिये रामनाम को ही जपना चाहिये ॥२८॥”
.
*दादू दरिया यहु संसार है, तामें राम नाम निज नाव ।*
*दादू ढील न कीजिये, यहु औसर यहु डाव ॥२९॥*
यह संसार महाभयंकर समुद्र है । योगवासिष्ठ में कहा है-
“यह दुःखरूपी जल से भरा है । इसमें जगह-जगह चिन्ता-शोकरुपी महाहृद(जलाशय) हैं । तमोगुण ही कच्छप है । रजोगुण मीन है । अतः इस को अपनी बुद्धिमत्ता से ही पार किया जा सकता है ।
संसार-स्नेह ही कीचड़ है, जिस में हम फँसे हुए हैं । बुढापा ही किला है जो पार जाने में बाधक है । हे राजन ! ज्ञान ही दीपक है । कर्मों के कारण यह अगाध हो रहा है । सत्य इसका एक किनारा है । इसमें स्थिरता है ।
हिंसा ही इस में शीघ्र वेग है । नाना शब्द-स्पर्शादि रसों से यह भरा पड़ा है । और इसमें नाना प्रकार का प्रेम ही महारत्न हैं । दुःखरूपी ज्वर से यह हवा की तरह कांपता रहता है ।
शोकतृष्णा ही इस में महान् आवर्त(भँवर) है । तृष्णा और व्याधियाँ इस में महान् हाथी हैं । इसमें हड्डियों का ढेर लगा हुआ है । श्लेष्मा इस में झाग है ।
दान करना ही मोतियों की खान है । रक्त ही इसमें विद्रुम मणि है । हँसना ही इसमें उत्कृष्ट घोष(शब्द) है । नान विधि अज्ञान के अक्रन यह दुस्तर है ।
रोना, आँसू बहाना, मलत्याग करना ही इस समुद्र की क्षारता है । स्त्री-पुत्रादि इस में जौंक के समान हैं । संगत्याग ही इसका परला किनारा है । भाई-बन्धु ही इसमें नगर-स्थानीय है ।
अहिंसा, सत्य भाषण, मर्यादा तथा प्राणत्याग ही इसमें बड़ी-बड़ी तरंगे हैं । वेदान्त का जानना ही इसमें द्वीप हैं । सब प्राणियों पर दया करना ही इस का उदधिरूप है ।
मोक्ष ही दुर्लभ विषय है । वाडवाग्नि इस सागर का मुख है । ऐसे सागर को सिद्ध महात्मा ही ज्ञानयोग के द्वारा पार कर जाते हैं । वे संसार को पारकर के आकाशरूपी ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसे समुद्र को भगवान् के नाम(स्मरण) से प्राणी अनायास ही पार कर जाता है ।”
सात्वततन्त्र में लिखा है-
“एकमात्र भगवान् के नाम का जप कर मनुष्य इस संसार समुद्र को पार कर जाता है । इसमें कोई संशय नहीं है । लेकिन नामापराध नहीं होना चाहिये ॥”
यही प्रसंगवश दश नामापराधों का भी वर्णन है । जैसे-
१.सत्पुरुषों की निन्दा, २.असत्पुरुषों को नाम की महिमा बताना, ३.विष्णु और शंकर में भेदबुद्धि रखना, ४.श्रुति, शास्त्र एवं गुरु की वाणी में अश्रद्धा, ५.नाम के बल पर निषिद्ध कार्य करना, ६.विहित कर्मों का त्याग, ७.नाम-जप की अन्य धर्मों से तुलना करना, ८.नाम जप में शिव और हरि के नामों की तुलना करना, ९.भगवान् के नाम की महिमा को असत्य बताना, १०,नाम महिमा को अर्थवाद कहकर उस की उपेक्षा करना-इस प्रकार दशविध नामापराध माना गया है ।
प्रमाद से नामापराध हो जाय तो नाम की शरण जाकर उसका जप करने से नामापराध शान्त हो जाता है । अतः इसी शरीर के रहते हुए हरिनाम-चिन्तन द्वारा संसार सागर से अपना उद्धार करना चाहिये ।
और भी कहीं लिखा है-
“यह संसार भयंकर समुद्र है । इसके उस पार के किनारे पर मुक्ति नगरी है । जिसमें आनन्द भरा हुआ है । इस(समुद्र) को पार करने के लिये शारीरिक सुखों से वैराग्य ही उपाय(नौका) है । दृढ़ ज्ञान ही इस नौका को चलाने वाला नाविक है । पुण्यफल की इच्छा न करना ही पतवार है । और रास्ते में निषेध करने(रोकने) वाले कामादि शत्रु विद्यमान है । अतः जिसके मुख में हरिनाम है वह इस संसार सागर को पार कर जायेगा ॥२९॥”
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें