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*आत्म बोधी अनुभवी, साधु निर्पख होइ ।*
*दादू राता राम सौं, रस पीवेगा सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विवेक समता का अंग ८९*
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चौरासी लख संप्रदा, सानी सकल शरीर ।
जन रज्जब घट घट इती, तू पूछै कै वीर ॥२२॥
चौरासी लक्ष योनियों ही अनादिकाल से चली आने से चौरासी लाख संप्रदाय है और वे गुण तथा स्वभाव रूप से ही सभी शरीरों से मिली हुई हैं । प्रति अन्त:करण में इतनी तो है और हे भाई ! तू कितनी पूछ रहा है ।
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चौरासी लख संप्रदा, करी विश्वंभर लोय१ ।
रज्जब रची बखनिये, औरौं करे से होय ॥२३॥
हे भोलेजन१ ! विश्वंभर भगवान ने चौरासी लाख योनियाँ ही चौरासी लाख संप्रदाय रूप से स्थापना करी हैं जो उनने रची है सो तो कही जाती हैं, यदि वे और रचना करें तो हो सकती हैं, वे उन प्रभु की रची हुई होने से सभी सम हैं । २२-२३ की साखी किसी के संप्रदाय विषयक प्रश्न करने पर कह कर समता दिखाई है ।
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सो सन्या१ ब्रह्माण्ड में, सोई पिंड पहचान ।
रज्जब निकसे शब्द मग, पंथ पड़्या यूं जान ॥२४॥
जो ब्रह्माण्ड के भोगों में सना१ हुआ है अर्थात आसक्त है, वही शरीर में आसक्त है, ऐसा ही पहचानो । जो विवेक समता के शब्दों रूप मार्ग द्वारा भोग और शरीर की आसक्ति से निकला है तो ऐसा जानना चाहिये कि यह प्रभु प्राप्ति के मार्ग में प्रविष्ठ हुआ है ।
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महन्त१ दीपक हीर में, सब दिशि सम प्रकाश ।
रज्जब धुक२ हि न एक रुख, सुनहु सनेही दास ॥२५॥
हे प्रेमी भक्त ! सुनो, हीरे का दीपक एक ओर ही नहीं जलता२, सब और से ही समान प्रकाश करता है वैसे ही महान१ संतों की रुख एक ओर ही नहीं होती, वे सबको ज्ञान देते हैं ।
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षट् दर्शन में सब मिलै, पौणि छत्तीसों आय ।
जैसे सप्त समुद्र में, नौसै नीर समाय ॥२६॥
जैसे सातों समुद्र में नौ सो नदियों का जल मिलता है, वैसे ही नाथ, सेवड़े , जंगम, बोद्ध, सन्यासी और शेष इन छ: प्रकार के भेषधारियों के सिद्धान्तों में छत्तीसों ही जाति मिलती हैं । अत: विवेकपूर्वक समता का सिद्धान्त ही श्रेष्ठ है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित विवेक समता का अंग ८९ समाप्तः ॥सा. २८४०॥
(क्रमशः)

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