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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ ।*
*उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥*
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पूर्वपुरुषों ने भी ऐसा ही कर्म किया है, कर्ता से मुक्त होकर। जैसे, जनक। कहीं जनक का नाम भी कृष्ण ने पहले लिया है, जनकादि। वे कर्म करते रहे हैं कर्ता से मुक्त होकर। यह क्यों याद दिलाते हैं श्रीकृष्ण? क्योंकि बहुदा ऐसा होता है कि जब तक हम फल की स्पृहा कामना) करते हैं, तब तक कर्म करते हैं। और जब हम कहते हैं फल की स्पृहा नहीं करते, तो हम फिर अकर्म करते हैं। फिर हम कहते हैं, अब हम जाते हैं।
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दो बातें हमारे लिए संभव मालूम पड़ती हैं। या तो हम फल की आकांक्षा करेंगे, तो कर्म करेंगे; या फल की आकांक्षा छोड़ेंगे, तो कर्म भी छोड़ेंगे। इसलिए दो प्रकार के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा करने वाले गृहस्थ और फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने वाले संन्यासी। ये एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। गृहस्थ कहता है कि हम कर्म कैसे करें बिना फल की आकांक्षा के? तो छोड़ देता है।
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श्री कृष्ण तीसरी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू कर्म तो कर परन्तु फल की आकांक्षा छोड़ दे। बड़ा सूक्ष्म है; पर बड़ा रूपांतरकारी है।
*यदि एक व्यक्ति ने फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ दिया, तो कुछ भी तो नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता था। फल की आकांक्षा के साथ कर्म के छोड़ने में, कुछ भी तो समझदारी नहीं है। जैसे फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने में समझदारी नहीं है, वैसे ही फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने में भी कुछ भी समझदारी नहीं है। कोई भी विशेषता नहीं है। कोई भी साधना नहीं है। यह तो बड़ी आसान बात है। इसमें तो कुछ कठिनाई नहीं है। यह तो गृहस्थ ही पीठ करके खड़ा हो गया, मन जरा भी नहीं बदला।*
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श्री कृष्ण कहते हैं, कर्म तो तू कर, कर्ता मत रह जा। श्री कृष्ण कहते हैं, गृहस्थ तो तू रह, और संन्यासी हो जा। और कहते हैं,ऐसा पूर्वपुरुषों ने भी किया है। यह केवल आश्वासन के लिए, कि तू चिंता मत कर, ऐसा मत सोच कि ऐसा कभी नहीं किया गया है। ऐसा पहले भी किया गया है। सच में ही इस पृथ्वी पर जो लोग ठीक से जाने हैं, उन्होंने कर्ता को छोड़ दिया और कर्म को जारी रखा है।
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*वास्तविक संन्यास: कर्ताहीन, कर्म-सहित। वास्तविक संन्यास: अहंकार-मुक्त, कर्म-संयुक्त। वास्तविक संन्यास: स्वयं को छोड़ देता, शेष सबको जारी रखता है। ऐसे ठीक-ठीक संन्यास की, सम्यक संन्यास की, श्री कृष्ण अर्जुन को शिक्षा देते हैं।*
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