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*परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवै ।*
*मतवाला माता रहै, यों दादू जीवै ॥*
*परिचय पीवै राम रस, युग युग सुस्थिर होइ ।*
*दादू अविचल आतमा, काल न लागै कोइ ॥*
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साभार ~ oshogeetadarshanvol2.wordpress.com
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राग के पार हुए, वीतराग हुए। वीतराग शब्द गहरा है और बहुत अर्थपूर्ण है। वीतराग का अर्थ वैराग्य नहीं है। वीतराग का अर्थ विराग नहीं है। विराग का अर्थ है, राग के विपरीत हुआ। वीतराग का अर्थ है, राग के पार हुआ।
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*राग का अर्थ है, संसार को पकड़ना, विराग का अर्थ हैं, संसार से पलायन करना, भागना, राग पकड़ता हैं, विराज त्यागता हैं।* परन्तु दोनों का केंद्र एक ही है। दोनों ही भाग रहे हैं, एक संसार के लिए, दूसरा संसार से। दोनों की एकाग्रता वही है। दोनों की एकाग्रता में भेद नहीं है।*
*वीतराग का अर्थ है, पार हुआ। वीतराग तीसरी बात है। न राग, न विराग। जो राग और विराग दोनों के पार होता है, वह वीतराग है। जिसके लिए सब कुछ व्यर्थ हो जाता है।*
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*वैरी मारे मरि गये, चित तैं विसरे नांहि ।*
*दादू अजहूँ साल है, समझ देख मन मांहि ॥*
ध्यान रहे, जो व्यक्ति कहता है, मैं धन का त्याग कर रहा हूं, धन उसे व्यर्थ नहीं हुआ; धन उसे अभी भी सार्थक है। जो व्यक्ति कहता है, मेने लाखों का त्याग किया हैं, उसके लिए भी व्यर्थ नहीं हुआ; अभी उसके लिए भी धन सार्थक है। हां, अर्थ बदल गया। पहले तिजोरी में बंद करने का अर्थ था, अब त्याग करने का अर्थ है; परन्तु अर्थ है। जो व्यक्ति तिजोरी में बंद कर रहा था, वह भी कह रहा था, मेरे पास इतने लाख हैं; और जिस व्यक्ति ने त्याग किया, वह भी कह रहा है, मैंने इतने लाख का त्याग किया। परन्तु धन दोनों के लिए मूल्यवान है।
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*वीतराग वह है, जो कहता है, धन में कुछ अर्थ ही नहीं। न मैं तिजोरी में बंद करता, न मैं त्यागता। धन में कुछ अर्थ नहीं। जिसके लिए धन बस मिट्टी जैसा हो गया। जिसके लिए धन मिट्टी जैसा हो गया, वह त्याग के अहंकार से भी नहीं भरता है।*
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श्री कृष्ण कहते हैं, जो राग के पार हो जाता है, वीतराग का अर्थ है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त विपरीत आसक्ति में होता है, पार नहीं होता। वह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर चला जाता है; दोनों ध्रुव के पार नहीं होता। वह एक द्वंद्व के छोर से द्वंद्व के दूसरे छोर पर सरक जाता है, परन्तु द्वंद्वातीत नहीं होता।
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श्री कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। वीतराग, वीतभय, वीतक्रोध; जो इन सबके पार हो जाता है। वीतलोभ। वह तीसरा ही आयाम है। वीतराग का अर्थ है, जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु। वीतराग का अर्थ है, जिसका चित्त किसी भी वस्तु से, किसी भी कारण से बंधा हुआ नहीं है। मित्रता से भी बंधा हुआ नहीं; शत्रुता से भी बंधा हुआ नहीं।
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और ध्यान रहे, मित्र भी बांध लेते हैं और शत्रु भी बांध लेते हैं। मित्रों की भी याद आती है, शत्रुओं की भी याद आती है। सच तो यह है, शत्रुओं की थोड़ी ज्यादा आती है। मित्रों को भूलना आसान; शत्रुओं को भूलना कठिन है। राग को भूलना आसान; विराग को भूलना कठिन है, बहुत कठिन है। प्रेम को भूलना आसान; घृणा को भूलना कठिन है। शत्रु पीछा करते हैं, छाया की भांति पीछे होते हैं और बदला लेते हैं। सब विराग बदला लेता है।
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श्री कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग होता, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। वे कह रहे हैं, मेरे शरीर को। अच्छा होता न कि वे कहते, मेरी आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। परन्तु श्री कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।
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*क्या रहस्य है? बड़ा गहरा रहश्य है।*
*यह जो ब्रह्मांड है, यह जो विश्व है, यह शरीर है परमात्मा का। यह जो दृश्य चारों ओर फैला है, यह शरीर है। यह सूरज, यह अरबों-अरबों प्रकाश वर्ष की दूरियों तक फैला हुआ ब्रह्माण्ड जो है, यह विस्तार है।*
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*क्या कभी आपने सोचा कि ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार, वृहत, जो फैलता ही चलता गया; जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं है। ब्रह्म बड़ा वैज्ञानिक शब्द है, ब्रह्म का अर्थ है, जो फैलता ही गया है, जो फैलता ही चला जाता है; जिसके फैलाव का कोई अंत ही नहीं है। इस फैले हुए का नाम ब्रह्म है। इस फैले हुए, दिखाई पड़ने वाले अस्तित्व को श्री कृष्ण कहते हैं, मेरा शरीर। जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।*
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*कृष्ण की आत्मा को तो हम अभी भी उपलब्ध हैं, परन्तु हम अपने-अपने शरीरों में अपने को बंद मान रहे हैं, वह हमारी भूल है। इसलिए श्री कृष्ण आत्मा की बात नहीं करते। उसको तो हम उपलब्ध ही हैं, केवल यह शरीर की भूल भर टूट जाए हमारी। हमें किसी दिन यह पूरा ब्रह्मांड अपना शरीर दिखाई देने लगेगा।*
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शरीर का अर्थ है, आत्मा का आवरण। शरीर का अर्थ है, आत्मा का गृह।
यह जो हमारा शरीर, हमें लगता है, मेरा शरीर ! यह हमें क्यों लगता है? राग के कारण, विराग के कारण। यदि राग और विराग दोनों छूट जाएं, तो यह मेरा शरीर है, ऐसा नहीं लगेगा। तब सब शरीर मेरे हैं। तब चन्द्रमा, तारे सभी मेरे शरीर के भीतर हो जाएंगे; तब मेरी जो चमड़ी है, वह असीम को छू लेगी।

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