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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*स्मरण नाम चितावणी*
*एक राम के नाम बिन, जीव की जलन न जाइ ।*
*दादू केते पचि मुए, करि-करि बहुत उपाइ ॥१४॥*
राम नाम के प्रताप से ही जीव का जलनात्मक त्रिविध ताप शान्त हो सकता है; व्रत, तप आदि साधनों से नहीं । क्योंकि भागवत में लिखा है-
“विद्या, तप, प्राणायाम, मैत्रीभाव, तीर्थाटन, व्रत, दान एवं जप-इन सब साधनों से अन्तरात्मा की इतनी शुद्धि नहीं हो सकती जितनी हृदयस्थ भगवान् के चिन्तन से होती है । अर्थात् हृदय की आत्यन्तिक शुद्धि हरिनाम कीर्तन रूपी साधन से ही होती है ।”
यदि अर्धक्षण भी हमारा चित्त निश्चल होकर भगवान् में स्थित हो जाय तो सर्व अनर्थों का मूल कारण जो अज्ञान है, वह उसी क्षण नष्ट हो जाता है ॥१४॥
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*दादू एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाइ ।*
*राम नाम छाडै नहीं, दूजा आवै जाइ ॥१५॥*
मुमुक्षु साधक राम नाम में दृढ़ निश्चय कर के शरीरादि पालन की चिन्ता त्यागकर, तथा भगवान् को सर्वस्व अर्पण कर रामनाम की साधना में ही लगा रहे । गीता में भी कहा है -
जो सम्पूर्ण कर्म भगवान् को अर्पित कर देने से संन्यास-रूपी योग से युक्त है, वह शुभ-अशुभ फलरूप कर्म बन्धनों से मुक्त होकर मेरा सान्निध्य प्राप्त कै लेता है ॥१५॥
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*नाम अगाधता*
*दादू राम अगाध है, परिमित नाहीं पार ।*
*अवर्ण वर्ण न जाणिये, दादू नाम अधार ॥१६॥*
*दादू राम अगाध है, अविगत लखै न कोइ ।*
*निर्गुण सगुण का कहै, नाम विलम्ब न होइ ॥१७॥*
*दादू राम अगाध है, बेहद लख्या न जाइ ।*
*आदि अंत नहि जाणिये, नाम निरन्तर गाइ ॥१८॥*
*अद्वैत ब्रह्म*
*दादू राम अगाध है, अकल अगोचर एक ।*
*दादू राम विलम्बिए, साधू कहैं अनेक ॥१९॥*
‘राम’ शब्द से यहाँ नित्य, चिदानन्दमय, सब ने रमण करने वाला, परब्रह्म परमात्मा का ग्रहण है । वह अगाध, अविगत, निर्गुण, निष्क्रिय, सगुण, साकार, निराकार, परात् पर आदि अन्त से रहित, कालातीत एवं इन्द्रियातीत है । उसके नाम का चिंतन करना चाहिये । ऐसा सन्त अनुभव से कहते हैं ।
यहाँ ब्रह्म का निषेधमुखेन वर्णन है; क्योंकि उसका विविधमुखेन वरना असम्भव है । पद्मपुराण में लिखा है -
“कृष्ण का नाम चिन्तामणि है । कृष्ण चैतन्य रसमय पूर्ण शुद्ध नित्यमुक्त है । नाम और नामी में अभेद होने से नाम भी ब्रह्मस्वरूप ही है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी ब्रह्म को निष्कल, निष्क्रिय, शान्त, निरन्जन, निरवद्य एवं अमृत रूप बतलाया है । वह जली हुई लकड़ी की तरह शुद्ध शान्त है ॥१६-१९॥”
(क्रमशः)
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