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*माँस अहारी मद पीवै, विषय विकारी सोइ ।*
*दादू आत्मराम बिन, दया कहाँ थी होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१*
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नाम सगौती बोलिये, कहिये ते मा अंश ।
सो रज्जब क्यों खाईये, प्रत्यक्ष अपना वंश ॥१३॥
जिसका नाम तो सगौती(एक गोत्र का) बोलते हो तथा माँस कहकर मा का अंश सूचित करते हो, तब वह प्रत्यक्ष ही अपना वंश हुआ फिर उसे क्यों खाते हो ।
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गोस्फंद१ गो२ मेष३ माजूर४, हमशीर५ सब भाई ।
रज्जब ऐन६ अजीज७ बोलिये, गाफिल८ गोस्त९ खाई ॥१४॥
बकरी१, गाय२, भेड़ा३, ये सभी असमर्थ४ जीव हमारे हकीकी५(सहोदर) भाई हैं । इनको ठीक६ प्रिय७ समझकर ही बोलना चाहिये । असावधान८ मानव ही इनका मांस९ खाते हैं ।
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षट्१ दर्शन२ अर खलक३ को, खोड़ि४ खात मद५ मांस ।
रज्जब सोच न दिल दया, ह्वै आपा पर नाश ॥१५॥
नाथ, जंगम, सेवड़े , बोद्ध, सन्यासी, शेष, इन छ:१ प्रकार के भेष२ धारियों तथा सभी संसार३ के मानवों में यह महान दोष४ है जो मांस मदिरा५ खाते-पीते हैं । उनके हृदय में न तो विचार है और न दया है, इसलिये दूसरे का नाश करके आप भी नष्ट होते हैं ।
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पंच वक्त१ जो बांग२ दे, वह तो दीनी३ यार४ ।
सो मुरगा क्यों मारिये, काजी करो विचार ॥१६॥
पांच समय१ जो आवाज२ लगाता है, वह मुरगा तो मजहबी३ मित्र४ है, हे काजी ! कुछ विचार तो करो उसे भी क्यों मारते हो ?
(क्रमशः)

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