रविवार, 24 नवंबर 2019

स्मरण का अंग ६३/६७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*दादू निर्विष नाम सौं, तन मन सहजैं होइ ।* 
*राम नीरोगा करेगा, दूजा नांही कोइ ॥६३॥* 
इस कलियुग में मन और इन्द्रियों के संशोधन का एकमात्र उपाय हरिकीर्तन ही है, दूसरा नहीं । विष्णुयामलतन्त्र में लिखा है- 
“सतयुग में जो ध्यान, यज्ञ एवं पूजन से फल मिलता है, वह सब कलियुग में केवल हरिकीर्तन मात्र से प्राप्त हो जाता है । 
कीर्तन में देश, काल व कर्ता का कोई नियम नहीं है, अतः कलियुग में सब से बड़ा धर्म हरिकीर्तन ही है ॥ 
यद्यपि कलियुग दोषों का समुद्र है, किन्तु उसमें साथ ही एक महान् गुण भी है कि केवल नाम जप से ही चतुर्वर्ग(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) फल प्राप्त हो जाता है ॥ 
शरीर के रोगों एवं जीर्ण शीर्ण होने पर गंगाजल ही औषध एवं नारायण ही एकमात्र वैद्य है । वही इसे निरोग करेगा॥६३॥” 
*ब्रह्म भक्ति जब उपजै, तब माया भक्ति बिलाइ ।* 
*दादू निर्मल मल गया, ज्यूँ रवि तिमिर नसाइ ॥६४॥* 
इस अज्ञानरूपी राक्षस ने जनता को भी स्त्री-पुत्रादि के मोहरूपी गर्त में पटक रखा है । अतः जनता को ब्रह्मज्ञान नहीं हो पाता । जब कभी उसका भाग्योदय होता है तब हरिभक्ति में प्रेम पैदा होता है, तब उस प्रेम से जीव हरिस्मरण में लगता है । तब सूर्योदय के समय अन्धकार की तरह माया विलिन हो जाती है । इसलिये अज्ञाननाश हेतु हरिस्मरण करना चाहिये । 
जब जीवात्मा सम्पूर्ण विषयासक्ति से रहित हो जाता है, तब स्वस्थ मन हृदय में उन्मनीभाव को प्राप्त होकर ब्रह्मपद पा लेता है ॥६४॥ 
*मनहर भाँवरि* 
*दादू विषय विकार सौं, जब लग मन राता ।* 
*तब लग चित्त न आवई, त्रिभुवनपति दाता ॥६५॥* 
*विरह जिज्ञासा* 
*दादू क्या जाणों कब होइगा, हरि सुमिरण इक तार ।* 
*क्या जाणों कब छाड़ि है, यहु मन विषै विकार ॥६६॥* 
जब तक मन विषयों में आसक्त है तब तक सम्पूर्ण अभीष्टार्थ के दाता त्रिभुवन के स्वामी परमात्मा का ध्यान नहीं हो सकता । विना ध्यान के मन निर्विकार नहीं हो सकता । निर्विकार हुए बिना सतत ध्यान असम्भव है । इस प्रकार दोनों के एक दूसरे पर आश्रित होने से अन्योन्याश्रय दोष है । जहाँ अन्योन्याश्रय होता है वहाँ कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता । इसी भाव से श्रीदादूजी महाराज भी लिख रहे हैं-का जाणूँ कब होइगा । योगवासिष्ठ में भी लिखा है- 
“हे राम ! यह संसार की स्थिति सैकड़ों जन्म-जन्मान्तर से अभ्यस्त है । विना चिरकाल के अभ्यास से यह नष्ट भी नहीं हो सकती । जैसे तत्त्वज्ञान, मनोनाश एवं वासनाक्षय-ये तीनों ही परस्पर एक दूसरे पर आश्रित होने से दुःसाध्य माने गये हैं ।” 
इस अन्योयाश्रय का परिहार भी इस पद से हो जाता है अर्थात् निरन्तर हरिस्मरण करते रहो । ये विषयविकार तो हरिनाम के प्रभाव से अपने आप ही निवृत्त हो जायेंगे ॥६५-६६॥ 
*है सो सुमिरण होत नहीं, नहीं सो कीजै काम ।* 
*दादू यहु तन यूँ गया, क्यूँ कर पइये राम ॥६७॥* 
जो ब्रह्म अस्ति-भाति-प्रियरूप से चर अचर सभी पदार्थों में विद्यमान है, उस का स्मरण तो कोई करता नहीं, और जो माया, जिसकी वास्तविक सत्ता है ही नहीं, उसका स्मरण प्रतिदिन प्रतिक्षण विषयों का चिन्तन करते हुए सभी लोग करते हैं । अतः भगवान् के स्मरण के विना केवल सांसारिक सुखोपभोग के लिये जीना व्यर्थ ही प्रतीत होता है । लिखा है- 
जैसे किसान के दुःख से उपार्जित सुख के देने वाले सुन्दर धान्य को अग्नि क्षणभर में जला डालती है, वैसे ही बहुत से दोषों को पैदा करने वाली मायारूप अग्नि भी सत्य को नष्ट कर देती है । 
अत्यन्त मायावी पुरुष विद्वेष, वैर, लड़ाई, भय, ताड़ना, अभिभव तथा सुख का घात आदि अनेक दोषों को प्राप्त हो जाता है । अतः बुद्धिमान पुरुष माया को नहीं भजते(चाहते) ॥ 
भगवान् ने अपने नाम में अपनी सारी शक्तियाँ निहित कर रखी है और उसके नाम जप के लिये कोई समय भी नियत नहीं, जब चाहे तब उसे जपा जा सकता है । इतनी बड़ी भगवान् की कृपा है । फिर भी मेरा दुर्भाग्य है कि उसके नाम में मेरी रुचि पैदा नहीं होती” ॥६७॥ 
(क्रमशः)

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