गुरुवार, 7 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*साहिब का उनहार सब, सेवक मांही होइ ।*
*दादू सेवक साधु को, दूजा नांही कोइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

एक ऐसी भी दशा है परम मुक्ति की, एक ऐसी दशा है परम कैवल्य की जहां व्यक्ति पुन: बच्चे की भांति हो जाता है। बहुत कठिन है यह बात स्वीकार करनी, क्योंकि हम संत से तो बहुत संयोजित व्यवहार की आशा रखते हैं। संत से तो हम आशा रखते हैं कि उसके व्यवहार में कोई कमी—खामी न होगी, कोई त्रुटि न होगी। संत से तो पूर्ण होने की आशा रखते हैं। क्योंकि संत तो हमारे लिये आदर्श हैं, उसका तो हम अनुकरण करेंगे।
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लेकिन सुनें, सांख्य कहता हैं कि परम संत वही है जो बालवत है। पूर्ण नहीं है, समग्र है। पूर्ण और समग्र के भेद को समझ लें। बच्चा सदा समग्र होता है, पूर्ण कभी नहीं होता। एक समग्रता होती है। बच्चा जब क्रोध करता है तो क्रोध हो जाता है। फिर कुछ नहीं बचता है उसमें, वह आग होता है। इसलिए बच्चे को क्रोधित देखो तो एक सौंदर्य होता है बच्चे में। न देखा हो, गौर करके देखें। अपने छोटे—मोटे और दूसरे विचार एक तरफ रख दें। जब एक छोटा बच्चा नाराज होता है तो छोटा—सा प्राण, लेकिन ऐसा लगता है सारी दुनिया को हिला देगा। पैर पटकता है पृथ्वी पर जोर से। उसकी नाराजगी में एक बल है, एक सौंदर्य है, एक कौमार्य है, एक कोमलता— और फिर भी एक महाशक्ति ! .
और क्षण भर बाद भूल गया। क्षण भर पहले क्रोधित हुआ था और कहता था : 'अब कभी शक्ल न देखेंगे, दोस्ती खत्म !' कट्टी कर ली थी। क्षण भर बाद गोद में बैठा है। याद ही न रही। बड़ा असंगत व्यवहार है बच्चे का ! लेकिन समग्र है। जब क्रोध में था तो पूरा क्रोध में था,जब प्रेम में है तो पूरा प्रेम में है। उसके प्रेम को उसका क्रोध आ कर खराब नहीं करता और उसके क्रोध को उसका प्रेम आ कर खराब नहीं करता; जब होता है तब समग्र होता है, पूरा—पूरा होता है। जो होता है वही होता है; उससे अन्यथा नहीं होता। उसके जीवन में एक प्रामाणिकता है।
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संत पुन: बच्चे की भांति हो जाता है। अब फिर बाहर और भीतर में एक रसता है। संत का कोई चरित्र नहीं होता। चौंके नहीं जब ऐसा कहा जा रहा है - संत का कोई चरित्र हो ही नहीं सकता। सज्जन का चरित्र होता है, दुर्जन में दुश्चरित्रता होती है। संत तो चरित्र के पार होता है—चरित्रातीत।
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'बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त है।’
उसके पास दो का भाव नहीं रह जाता।
यह ठीक और यह सही,
यह हेय, यह उपादेय;
यह शुभ,यह अशुभ,
यह माया, यह ब्रह्म—ऐसा कुछ नहीं रह जाता। जो है, है।
'. ……द्वंद्व मुक्त बालक के समान जैसा है वैसा ही रहता है।’
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संत होना सहज होना है।
तीन शब्द सुने हैं—
सविकल्प समाधि;
निर्विकल्प समाधि,
सहज समाधि।
सविकल्प समाधि में विचार रहता है।
निर्विकल्प समाधि में विचार चला जाता है; लेकिन विचार चला गया है, इसका बोध रहता है। सहज समाधि में वह बोध भी चला जाता है, न विचार रहता, न निर्विचार रहता। सहज समाधि का अर्थ है : आ गये अपने घर, हो गये स्वाभाविक; अब जैसा है वैसा है; जो है वैसा है; उससे अन्यथा की न कोई चाह है न कोई मांग है। इस 'जैसे हो वैसे ही' के साथ राजी हो जाने में ही तृष्णा का पूर्ण विसर्जन है। फिर तृष्णा कैसी ! फिर तृष्णा नहीं बच सकती है।

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