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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी (श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*गुरु मन्त्र(गायत्री मन्त्र) *
*दादू अविचल मंत्र, अमर मंत्र, अखै मंत्र,*
*अभै मंत्र, राम मंत्र, निजसार ।*
*संजीवन मंत्र, सवीरज मंत्र, सुन्दर मंत्र,*
*शिरोमणि मंत्र, निर्मल मंत्र, निराकार ॥*
*अलख मंत्र, अकल मंत्र, अगाध मंत्र,*
*अपार मंत्र, अनन्त मंत्र राया ।*
*नूर मंत्र, तेज मंत्र, ज्योति मंत्र,*
*प्रकाश मंत्र, परम मंत्र, पाया ॥*
*उपदेश दीक्षा दादू गुरु राया ॥१५५॥*
*‘दादू’* शब्दस्यार्थः
सच्चिदानन्द, पर(कारण ब्रह्म) से भी परे, निज आत्मस्वरूप परमात्मा ने ही इस जगत् में ‘दादू’ नाम से अवतार लिया ॥१॥
*अविचलमन्त्रः*
जो साधक “ब्रह्म सदा निराकार निरन्जन है”- ऐसा सदा ध्यान करता है तो ‘अविचल’ हो जाता है ॥२॥
*अमरमन्त्रः*
सब प्राणियों की बुद्धि रूप गुहा में रहने वाला ब्रह्म अमर है । जो अमर है वही मैं हूँ, इस तरह उसकी उपासना करता है वह अमर हो जाता है ॥३॥
*अखैमन्त्रः*
इस लोक में ब्रह्म ही अक्षय है, शेष तो सब क्षर(विनाशी) है इसलिये क्षर को त्यागकर अक्षर ब्रह्म की उपासना करो ॥४॥
*अभैमन्त्रः*
जो सब प्राणियों को सर्वथा अभयदान देता है वह अभय ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है । जहाँ, भय, शोक आदि का नाम भी नहीं है ॥५॥
*राममन्त्रः*
विद्वान् पुरुष, जो सब प्राणियों में रमण करता है, तथा जिसमें योगी रमण करते हैं, उसको ‘राम’ कहते हैं ॥६॥
*निजसारमन्त्रः*
विश्व का जो महान् साररूप है तथा प्रत्यगात्मस्वरूप है - साधक ऐसा जानकर सब के प्रत्यगात्मा से अभिन्न हो जाता है ॥७॥
*सजीवनमन्त्रः*
जो सब प्राणियों को जीवनदान करता है तथा प्राणों को धारण करता है, उसका ध्यान करने वाला साधक जीवन्मुक्त हो जाता है ॥८॥
*सबीरजमन्त्रः*
बलवानों में जिस परमात्मा का बल सदा सुशोभित हो रहा है, उसके बल का चिन्तन करने वाला साधक बलवान् बन जाता है ॥९॥
*सुन्दरमन्त्रः*
‘जिस परमात्मा की सुन्दरता से यह जीव सुन्दर प्रतीत हो रहा है’ - ऐसा जानकर जो उसकी उपासना करता है वह सबसे अधिक सुन्दर माना गया है ॥१०॥
*सिरोमणिमन्त्रः*
‘सब प्राणियों के मस्तक पर ब्रह्म ही विराज रहा है’ - ऐसा जानने वाला साधक ‘सर्वशिरोमणि’ ही जाता है ॥११॥
*निर्मलमन्त्रः*
अविद्या आदि दोषों से जो रहित है वह निर्मल ब्रह्म कहा जाता है । उसकी उपासना करने वाला साधक जीव भी निर्मल बन जाता है ॥१२॥
*निराकारमन्त्रः*
वेद-शास्त्रों में ब्रह्म को सदा ही ‘निराकार’ बताया है । उसका निराकार रूप से ध्यान करने वाला भी ‘निराकार’ बन जाता है । यहाँ ‘निर्’ शब्द का अर्थ अत्यन्ताभाव है । यदि ‘निर्गत अकारो निराकार:’ ऐसी व्युत्पत्ति मानेंगे तो कभी ब्रह्म में आकारता भी मानना पड़ेगी । और यह सिद्धांतविरुद्ध है; क्योंकि प्राप्त होने पर ही निषेध होता है । अत्यन्ताभाव अर्थ मानने में सदा निराकारता बन जायेगी ॥१३॥
*अलखमन्त्रः*
जो चक्षु आदि इन्द्रियों तथा मन से भी नहीं जाना जाता वह ‘अलख ब्रह्म’ कहलाता है । अतः विद्वानों को उसी की उपासना करनी चाहिये ॥१४॥
*अकलमन्त्रः*
सदा कला तथा क्रिया रहित होने से ब्रह्म ‘निष्कल’ एवं ‘निष्क्रिय’ कहलाता है । ऐसे ब्रह्म का ध्याता साधक भी निष्कल(अकल) हो जाता है ॥१५॥
*अगाधमन्त्रः*
वही ब्रह्म देशकाल से रहित होने के कारण अगाध कहलाता है । जो अगाध रूप से ब्रह्म का ध्यान करता है वह देश-काल रहित अगाध ब्रह्मस्वरूप हो जायगा ॥१६॥
*अपारमन्त्रः*
जिस ब्रह्म का देश काल क्रिया आदि से पारावार नहीं, उस ब्रह्म का ध्यान करने वाला भी पार से रहित हो जाता है ॥१७॥
*अनन्तमन्त्रः*
उत्पत्ति-विनाश से रहित को ‘अनन्त’ कहते हैं । उस अनन्त रूप ब्रह्म का ध्यान करने वाला अनन्तभाव को प्राप्त हो जाता है ॥१८॥
*रायामन्त्रः*
सब राजाओं का भी राजा होने से ब्रह्म को राजराजेश्वर कहते हैं । इसकी आराधना करने वाला राजा की तरह सदा सुशोभित होता है ॥१९॥
*नूरमन्त्रः*
ब्रह्म को सदा ज्ञानमय तथा आनन्दस्वरूप बतलाया है । जो उस को ज्ञान तथा आनन्दस्वरूप से भजता है वह स्वयं भी ज्ञान तथा आनन्द रुप हो जाता है ॥२०॥
*तेजमन्त्रः*
ब्रह्म सूर्य चन्द्र आदि को प्रकाशित करने वाला तेजोरूप है । उसका जो तेजोरूप से ध्यान करता है वह तेजस्वी बन जाता है ॥२१॥
*ज्योतिमन्त्रः*
ब्रह्म बाहर भीतर स्वयं ज्योतिःस्वरूप परात्पर है । जो उसकी ‘ज्योति’ रूप से उपासना करता है वह ज्योतिःस्वरूप बन जाता है ॥२२॥
*प्रकाशमन्त्रः*
ब्रह्म सब भूतों में रहने वाला, चिदानन्द, साक्षिस्वरूप एवं प्रकाशरूप है । उसकी स्वप्रकाशत्वेन जो उपासना करता है वह स्वयं प्रकाश वाला बन जाता है ॥२३॥
*परममन्त्रः*
यहाँ ‘परम’ शब्द से ब्रह्म की सर्वोत्कृष्टता ही लक्षित होती है । जो उन को सर्वोत्कृष्ट मानकर उपासना करता है वह भी लोक में सर्वोत्कृष्ट हो जाता है ॥२४॥
*पायामन्त्रः*
इन मंत्रों द्वारा ब्रह्म की अभेदोपासना तथा उसका फल बताया है । जो उसकी अभेदोपासना करता है वह ब्रह्मरूप हो जाता है ।
सद्गुरु ने यही दीक्षा दी है ॥१५५॥
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*दादू सब ही गुरु किए, पशु पंखी बनराइ ।*
*तीन लोक गुण पंच सौं, सबही मांहिं खुद आइ ॥१५६॥*
ब्रह्म के दो लक्षण है - एक स्वरूप, दूसरा तटस्थो स्वरूपलक्षण तो “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ इस श्रुति द्वारा प्रतिपादित है ही । आचार्य इस साखी में तटस्थ लक्षण बता रहे हैं *दादू सब ही गुरु किये* । यहाँ ‘गुरु’ शब्द से जगत् के बनाने वाले परमात्मा का ग्रहण है । क्योंकि परमात्मा ने ही आकर साक्षाद् दर्शन दिये थे और उसी समय श्रीदादूजी महाराज को उपदेश किया था । इसलिये “जिस ब्रह्म से सम्पूर्ण जगत् पैदा होता है, उसी में स्थित रहता है और अन्त में उसी में लीन हो जाता है” इत्यादि श्रुति से यह सिद्ध होता है कि इस जगज्जात का पैदा करने वाला ब्रह्म है । अतः जो जगत को बनाता है, पालन करता है तथा संहार करता ही - यही ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है । इसका निर्णायक वाक्य है -
“आनन्दाद्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति” इत्यादि श्रुति से भी नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव ब्रह्म ही जगत् का अभिन्न निमित्तोपादानलक्षण रूप से कारण सिद्ध होता है । उसी शुद्ध ब्रह्म की उपासना करनी चाहिये । कार्यब्रह्म की नहीं । वह पशु-पक्षी-मनुष्य-वनस्पति आदि त्रिलोकी में तथा सत्त्वादि गुणों में पञ्चभूतों में और भौतिक पदार्थों में कारण रूप से सब में विराजमान है ॥१५६॥
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*जे पहली सतगुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ ।*
*अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ ॥१५७॥*
गुरु के द्वारा उपदिष्ट सच्चिदानन्द ब्रह्म को मैंने साधन द्वारा निर्विकल्प समाधि में दिव्य(ज्ञान) नेत्रों से प्रत्यक्ष कर लिया है । अतः जैसे जल नमक डालने पर वह जल में मिल जाता है, उसी प्रकार रसरूप ब्रह्म में प्रतिक्षण लीन हुआ मैं ब्रह्मस्वरूप हो गया । क्योंकि कहा है कि ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही हो जाता है । यही अभेदोपासना का फल है ॥१५७॥
॥ इति श्रीगुरुदेव के अंग का पं. आत्मारामस्वामी कृत भाषानुवाद समाप्तः ॥१॥
(क्रमशः)

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