गुरुवार, 7 नवंबर 2019

गुरुदेव का अंग १४९/१५४

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
.
*मन इन्द्रिय निग्रह* 
*दादू पंचों ये परमोधि ले, इन्हीं को उपदेश ।* 
*यहु मन अपणा हाथ कर, तो चेला सब देश ॥१४९॥* 
*अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहि कलि माहिं ।* 
*दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि मरि जाहिं ॥१५०॥* 
*औषध खाइ न पथ्य रहै, विषम व्याधि क्यों जाइ ।* 
*दादू रोगी बावरा, दोष बैद को लाइ ॥१५१॥* 
*बैद बिथा कहै देखि करि, रोगी रहै रिसाइ ।* 
*मन मांहै लीये रहै, दादू व्याधि न जाइ ॥१५२॥* 
*दादू बैद बिचारा क्या करै, रोगी रहै न साच ।* 
*खाटा मीठा चरपरा, मांगै मेरा वाच ॥१५३॥* 
इस लोक और परलोक के समग्र पदार्थ नाशवान् हैं, इनमें कहीं भी सुख का लवलेश भी नहीं है । जैसे मृगतृष्णा के पानी में वास्तविक पानी नहीं है, वहाँ केवल भ्रान्ति से पानी प्रतीत होता है । इस प्रकार के वैराग्य तथा ज्ञान बोधक वाक्यों से शम-सन्तोष साधन सम्पन्न होकर पहले मन को जीतना चाहिये । 
इन्द्रियों के जीते विना मन जीता नहीं जाता । अतः पहले इन्द्रियों को जीतकर मन को जीतो । मन के जीतने पर भी विषय में आसक्ति विषयचिन्तन से होती हो तो हाथ से हाथ को दबा कर दांतों से दांतों को भीचकर अंगों से अंगों को पकड़कर मन को जीतो । मन के जीतने पर तो बंधे हुए हाथी की तरह फिर मन विषयों में नहीं जायेगा । 
जनक ने योगवासिष्ठ में कहा है- 
“हजारों शाखा-प्रशाखाओं तथा पुष्प-फलों से सम्पन्न इस संसाररूपी वृक्ष की जड़ मन है । इसलिये यह संसार संकल्पमय है । संकल्प के उपशम से यह संसारवृक्ष शुष्क हो जायेगा । मैं अब जग गया हूँ । मन रूपी चोर को मैंने देख लिया है । अतः मन से ही इस मनरूपी चोर को नष्ट कर दूंगा । इसने मुझको बहुत हानि पहुंचायी है । 
इस उपद्रवकारी संसार वृक्ष के नाश का एक ही उपाय है कि जीव अपने मन को निग्रहीत कर ले । मन का अभ्युदय ही जीव का नाश है । और इसके विपरीत, मन का नाश जीव का महान् अभ्युदय है । ज्ञानी का मन मरा हुआ है, अज्ञानी के लिये मन ही शृंखला(जंजीर) है । जिसने अपने चित्त के दर्प को नष्ट कर दिया, तथा इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लिया, उसकी भोगवासना इस तरह नष्ट हो जाती है, जैसे हेमन्त ऋतु में शीत से कमलिनी मुरझा जाती है । यों, मन को जीतने से ही अमर अभय पद प्राप्त हो सकता है । अन्यथा तो जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहना पड़ता है । 
गौड़पादाचार्य ने लिखा है- “सभी योगियों के लिये अभय पद की प्राप्ति, दुःखनाश, ज्ञान तथा अक्षय शान्ति मन के निग्रह पर ही निर्भर करती है ।” 
गुरु के विना संसारी पुरुष जन्मते-मरते रहते हैं । जैसे कोई विषम व्याधि औषध सेवन के विना निवृत्त नहीं हो सकती; वहाँ कोई रोगी औषध-सेवन व पथ्य का पालन तो करे नहीं, उल्टे वैद्य को ही दोष देता रहे-वह रोगी मुर्ख है । 
क्योंकि इसमें वैद्य का कोई दोष नहीं, रोगी का ही दोष है । वह व्यर्थ ही वैद्य पर क्रोध करता है या दोषारोपण करता है; क्योंकि वह रोगी जिव्हा के वश में होकर भोगों को बार बार सेवन करता रहता है । इसी तरह यह संसार भी भयंकर रोग है । ज्ञानरूप औषध तथा इन्द्रिय-संयम रूप पथ्य के पालन विना इसे दूर नहीं किया जा सकता । वह मूढ व्यर्थ ही गुरुरूप वैद्य को दोष लगाता है । ऐसा शिष्य दुराग्रही होता है ॥१४९-१५३॥ 
*गुरु उपदेश* 
*दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।* 
*दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥१५४॥* 
प्रथम तो जीव-ब्रह्म की एकता के बोधक ज्ञान वाले, वासनारहित सभी संकल्पों से दूर तथा सभी सुख-दुःखों को समान दृष्टि से देखने वाले एवं अपने समस्त कर्मों को ईश्वर के निमित्त करने वाले साधु इस कलिकाल में अत्यन्त कठिनाई से दर्शन देते हैं । जैसे कहा भी है- 
“जैसे चन्दन सब जगह नहीं मिलता, वैसे साधुओं का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ।” 
यदि ऐसे साधुओं के यथा कदाचित् दर्शन हो भी जाय तो उनके द्वारा ज्ञानोपदेश प्राप्ति अत्यन्त कठिन है; क्यों कि उन के ज्ञान को धारण करने वाला कोई अधिकारी ही नजर नहीं आता । 
उपदेश मिलने पर उसको हृदय में धारण करना तो अत्यन्त कठिन है; क्योंकि सब के हृदय अशुद्ध होते हैं । 
और किसी तरह उस उपदेश को हृदय में धारण भी कर ले तो भी ब्रह्मप्राप्ति तो दुर्लभ ही है । अतः इन सब को पुरुषार्थ करके प्राप्त करना चाहिये ॥१५४॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें