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*मन चित मनसा आत्मा, सहज सुरति ता मांहि ।*
*दादू पंचों पूर ले, जहँ धरती अंबर नांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मेलग का अंग ९०*
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पंच मिले मधु ऊपजै, पंच मिले मद जाय ।
रज्जब पंचे पंच में, विगता विगत सु जोय ॥५॥
पांच वस्तुओं के मिने पर पंचामृत होता है वा पाँच मधु मक्षिकायें मिलती हैं तब शहद होता है । गुड़ादि पंच मिलने से ही मदिरा बनती है । पंचों में भी पाँच होते हैं, यदि वे अलग हो जाँय तो पंचायत नहीं रहती ।
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रज्जब इक अजरी१ बजरी२ मिलहिं, इक मधुरिख३ मधु ठौर ।
मेला देखन मुग्ध मिल, मेल मेल रस और ॥६॥
एक मक्खी१ तो मल२ से मिलती है और एक मधुमक्षिका३ शहद से मिलती है, मिलना तो दोनों का एक ही है किन्तु मिलन-मिलने में रस की भिन्नता रह जाती है । अत: केवल मिलाप को देखकर ही मोहित होकर मत मिल, जिसके मिलने से शान्ति मिले उन संतों से मिल ।
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इक पाक पलट ह्वै पय१ मयी२, एक पाक पुनि पीब३ ।
रज्जब पाक हुं फेर४ बहु, नर निरखों सु नसीब५ ॥७॥
एक रस का पकना तो दूध१ रूप२ होता है और एक फोड़े का पकना मवाद३ रूप होता है । अत: पकने पकने में बहुत भेद४ रहता है, हे नर ! अपने प्रारब्ध५ कर्म का परिपाक देखकर के ही मिलने योग्य से मिल ।
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पंचतार जंतर१ चढै, सोलह स्वर सु मृदंग ।
स्वर मंडल स्वर बहुत हैं, बाजत एक हि अंग२ ॥८॥
तंदूरे१ पर २षडज के, २पंचम के और १मध्यम का यं पंच तार चढाते हैं । मृदंग के सोलह बोल ही १६ स्वर होते हैं । स्वर मंडल(१तार-वाद्य) से बहुत स्वर निकलते हैं किन्तु हे प्रिय२ ! सब मिल कर एक ही राग में बजते हैं, बिना मिले राग भंग हो जाती है । यह मेल की ही विशेषता है । मृदंग के सोलह स्वर अंग १७८ की साखी ३ की टीका में देखो । यह साखी अंग ७७ में तीसरी आ चुकी है किन्तु यह अंग दूसरा होने से किंचित अर्थ का भेद हुआ है ।
(क्रमशः)

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