मंगलवार, 5 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहि ।*
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥*
*दादू सब थे एक के, सो एक न जाना ।*
*जने जने का ह्वै गया, यहु जगत दिवाना ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

*'जिस आत्मारूपी समुद्र में यह संसार तरंगों के समान स्फुरित होता है, वही मैं हूं। यह जान कर भी क्यों तू दीन की तरह दौड़ता है?'* आदमी के जीवन की एकमात्र दीनता है वासना, क्योंकि वासना भिखमंगा बनाती है। वासना का अर्थ है, दो। वासना का अर्थ है. मेरी झोली खाली है, कोई भरो, मेरी झोली खाली है। वासना का अर्थ है, मांगना। वासना का अर्थ है कि मैं जैसा हूं वैसा पर्याप्त नहीं। मैं जैसा हूं उससे मैं संतुष्ट नहीं, दो !
_*विश्व स्फुरति यत्रेदं तरंग इव सागरे*_
*'जैसे आत्मारूपी समुद्र में यह संसार तरंगों के समान स्फुरित होता, वही मैं हूं - ऐसा जानकर..।*
_*सोऽहमस्मीति विज्ञाय.......*_
*'……. ऐसा जान कर।*
_*'किं दीन इव धावसि।*_
*'….. फिर तू दीन की तरह दौड़ा जा रहा है !'*
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जरा भीतर तो देख, वहां कोई दौड़ बाकी तो नहीं है? वहां कुछ मांग बाकी तो नहीं है? वहां कुछ पाने को शेष तो नहीं है? क्योंकि परमात्मा के मिलने का अर्थ यह है कि अब पाने को कुछ भी शेष न रहा। मिल गया जो मिलना था। आखिरी मिल गया, आत्यंतिक मिल गया; इसके पार मिलने को कुछ भी नहीं। अगर भीतर अब भी इसके पार मिलने को कुछ हो तो समझ लें कि परमात्मा नहीं मिला, मनुष्य शब्दों के जाल में आ गया ! सम्मोहित हो गया। ध्यान रहे, मन को अच्छी बातें मान लेने की बड़ी जल्दी होती है। कोई कह दे कि आप तो परमात्म—स्वरूप हैं, कौन इंकार करना चाहता है ! आप तो ब्रह्म—स्वरूप हैं, कौन इंकार करना चाहता है ! अहंकार भरता है।
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कोई कह दे, आप तो शुद्ध—बुद्ध नित्य—चैतन्य—कौन इंकार करता है ! बुद्धु से बुद्धु भी इंकार नहीं करता जब उससे कहो कि आप शुद्ध—बुद्ध ! तो वह कहता है बिलकुल ठीक, अब तुम पहचाने। अभी तक कोई पहचाना नहीं। नासमझ हैं; क्या खाक पहचानेंगे ! आप बुद्धिमान हैं, इसलिए पहचाना। ज्ञान की घोषणाएं कहीं अहंकार के लिए आधार तो नहीं बन रहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है, प्रीतिकर लगती हैं, इसलिए मान लीं? कड़वी बातें कौन मानना चाहता है ! कोई पापी कहे तो दिल नाराज होता है। कोई तुम्हें पुण्यात्मा कहे तो मनुष्य स्वीकार कर लेता है। हो सकता है कि जिसने पापी कहा था, वह सत्य के ज्यादा करीब हो।
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कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये स्वादिष्ट बातें, ये मधुर बातें, ये वेदों का सार, ये उपनिषदों का सार..! स्वादिष्ट लग रहा है, यह तो पक्का है; लेकिन स्वादिष्ट लगने से कुछ सत्य थोड़े ही हो जाता है ! आदमी मौत से डरता है, तो जल्दी से मान लेता है, आत्मा अमर है। इसलिए नहीं कि समझ गया कि आत्मा अमर है; मौत के डर के कारण...। नहीं, आत्मा अमर है का सिद्धांत पकड़े ही इसलिए हैं कि मरने से डरे हुए हैं। यह सिद्धांत सुरक्षा है। यह सिद्धांत अनुभव से नहीं जाना है। अगर ऐसा है फिर से एक बार भीतर उतर कर देखें।
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*'अत्यंत सुंदर और शुद्ध चैतन्य आत्मा को सुन कर भी कैसे कोई इंद्रिय—विषय में अत्यंत आसक्त हो कर मलिनता को प्राप्त होता है !' श्रुतापि—सुन कर भी !* ध्यान रखना, सुनने से ज्ञान नहीं होता। ज्ञान तो स्वयं के अनुभव से होता है। श्रुति से ज्ञान नहीं होता, शास्त्र से ज्ञान नहीं होता। हिंदुओं ने ठीक किया है कि शास्त्र के दो खंड किए हैं—श्रुति और स्मृति। ज्ञान उसमें कोई भी नहीं है। कुछ शास्त्र श्रुतियां हैं, कुछ शास्त्र स्मृतियां हैं। न तो स्मृति से ज्ञान होता, न श्रुति से ज्ञान होता। श्रुति का अर्थ है सुना हुआ, स्मृति का अर्थ है याद किया हुआ। जाना हुआ दोनो कोई भी नहीं है।
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*श्रत्वगिप शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुदरम्।*
ऐसा सुन कर कि आत्मा अति सुंदर है, भ्रांति में न पड़ जाये। मान न ले। जब तक जान ही न ले, तब तक माने नहीं। विश्‍वास न कर ले,अनुभव को ही आस्‍था बनने दे। नहीं तो ऊपर—ऊपर मनुष्य मानता रहेगा—आत्मा अति सुंदर है—और जीवन के भीतर वही पुरानी मवाद, वही इंद्रिय—आसक्ति, वही वासना के घाव बहते रहेंगे, रिसते रहेंगे।
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*'अत्यंत सुंदर और शुद्ध चैतन्य आत्मा को सुन कर भी कैसे कोई इंद्रिय—विषय में अत्यंत आसक्त हो कर मलिनता को प्राप्त होता है !'* इसे ध्यान रखें ! सुनने वाले बहुत हैं। सुन कर मान लेने वाले बहुत हैं। लेकिन उनके जीवन में तो देखा जाये तो सुन—सुन कर उन्होंने मान भी लिया है, लेकिन फिर भी मलिनता को रोज प्राप्त होते हैं। मलिनता जाती नहीं। जहां मौका मिला, वहां फिर तीसरा फरेब कि तीन सौवां फरेब, फिर फरेब खाने को तैयार हो जाते हैं।

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