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*विरही जन जीवै नहीं, जे कोटि कहैं समझाइ ।*
*दादू गहिला ह्वै रहै, तलफि तलफि मर जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *भाग ३* *विरह*
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विरही भगवत् दर्शन बिन, जीवित नही रह पाय ।
श्वेत द्विप के भक्त जन, मरे पछाड़े खाय ॥३४२॥
एक समय भगवान नारायण नारदजी को श्वेत द्वीप के भक्त के दर्शन कराने ले गये थे । वहां जाकर एक भगवत् मंदिर देखा, उसकी आरती होकर मंदिर बंद हो गया था । फिर उन्होंने एक भक्त को शीध्रता से मंदिर की ओर आते देखकर कहा - 'मंदिर तो बंद हो गया है।'
यह सुनते ही वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और मर गया । पीछे से उसकी स्त्री आई। नारायण ने उसे कहा - 'तेरा पति मर गया उसका क्रिया कर्म करना चाहिये ।'
स्त्री - 'ज्ञान होता है कि तू कोई भगवत् विमुख है, भगवत् दर्शन होने पर भी क्रिया-कर्म बाकी रह जाते हैं क्या ?' फिर नारायण ने कहा - 'आरती हो गई और मंदिर भी बंद हो गया ।' यह सुनते ही वह स्त्री भी पृथ्वी पर पड़कर मर गई ।
फिर उसके पुत्र आदि जो भी आये उन सब की भी वही गति हुई । नारायण और नारदजी उनकी भक्ति देख कर प्रेम मग्न होते हुये आगे चले गये और संयोग वश पुन: उधर आये तो मंदिर खुल कर दूसरे समय की आरती हो रही थी । आरती के बाजों की ध्वनी से वे मरे हुये लोग पुन: जीवित हो गये और दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुये । इससे सूचित होता है कि विरही भक्त भगवत् दर्शन बिना जीवित भी नहीं रह सकते ।
***विरह का उपकार***
विरह आय जगावे सोवत जीव को ।
कर गह कर ले जाय मिलावे पीव को ।
विरह बिना को पावे ईश अनूप को ।
काढ सके बिन रज्जू कौन जल कूप को ।
जगा विरह घट माँहि जीव जगनाथ की ।
विमल होय प्रख्यात विरह से पात की ।
असत्य भव से विरह जीव को मोड़ता ।
जीव ब्रह्म की दरज 'नरायण' जोड़ता ।
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###

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