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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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११० - निस्पृहता । प्रतिताल
तो काहे की परवाह हमारे,
राते माते नाम तुम्हारे ॥टेक॥
झिलमिल झिलमिल तेज तुम्हारा,
परगट खेले प्राण हमारा ॥१॥
नूर तुम्हारा नैनों माँहीं,
तन मन लागा छूटै नाँहीं ॥२॥
सुख का सागर वार न पारा,
अमी महारस पीवनहारा ॥३॥
प्रेम मगन मतवाला माता,
रँग तुम्हारे दादू राता ॥४॥
इति राग कान्हड़ा समाप्त : ॥४॥पद १३॥
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अपनी निर्लोभता दिखा रहे हैं - प्रभो ! जब हम आपके नाम - चिन्तन में अनुरक्त होकर मस्त हैं, तब हमें किसकी परवाह है ?
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झिलमिल २ करता हुआ आपका स्वरूप प्रकाशमय है, उसी से हमारी आत्मा प्रत्यक्ष में दर्शनानन्द रूप खेल खेल रही है ।
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आपका स्वरूप हमारे ज्ञान - विचार - नेत्रों में प्रतिक्षण रहता है और हमारे तन - मन उसी में लगे हैं, वे कभी भी अलग नहीं होते ।
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आप वार - पार रहित सुख - सिन्धु हैं । मैं आपके स्वरूपामृत - महारस का पान करने वाला हूं ....
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और आपके प्रेम में निमग्न हुआ मतवाले के समान मस्त रहता हुये आपके चिन्तन - रँग में अनुरक्त रहता हूं ।मुझे मायिक सुखों का किंचित् भी लोभ नहीं है ।
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इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग कान्हडा समाप्त: ॥४॥
(क्रमशः)

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