मंगलवार, 12 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com
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कर्मों के फलों में स्पृहा नहीं है; कर्मों के फलों की आकांक्षा नहीं है। *खेल और कर्म का यही भेद है। फल की आकांक्षा हो, तो खेल भी कर्म बन जाता। फल की आकांक्षा न हो, तो कर्म भी खेल बन जाता। बस, कर्म और खेल का भेद ही फल की आकांक्षा है।*
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जैसे प्रातः काल हम भ्रमण को निकलते हैं, कोई पूछता है, कहां जा रहे हैं? हम कहते हैं, कहीं जा नहीं रहे. घूमने जा रहा हूं। अर्थात फल का कोई प्रश्न नहीं है; कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन नहीं है। कहीं पहुंचने को नहीं जा रहे। कोई गंतव्य नहीं है, जहां के लिए जा रहे हैं । बस, घूमने जा रहे हैं।
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इसी मार्ग से दफ्तर के समय में दफ्तर के लिए भी जाते हैं। तब आप बस घूमने नहीं जा रहे हैं, कहीं जा रहे हैं। मार्ग वही है, आप वही हैं, पैर वही हैं। परन्तु कभी आपने भेद देखा कि सुबह के घूमने का आनंद और है; और दप्तर के समय दप्तर को जाने का बोझ और है। मार्ग वही, आप वही, पैर वही, हवाएं वही, सूरज वही, भेद कहां है?
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भेद सुबह खेल था; दोपहर कर्म हो गया। सुबह स्पृहा न थी फल की। कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन न था। कर्म ही फल था। कर्म के बाहर कोई फल न था। घूम लिए, पर्याप्त है। घूमना अपने आप में अंत था। पार कहीं कोई बात न थी। कहीं जाना न था; कुछ पाना न था। कुछ पाने को न था; घूमना ही पाना था। वही क्षण, वही कृत्य सब कुछ था। उसके बाहर कोई स्पृहा न थी। तब एक हल्कापन था पैरों में; पक्षियों के परों का हल्कापन था। मन में हवाओं की ताजगी थी; आंखों में फूलों की सरलता थी। कहीं जा न रहे थे; कोई तनाव न था, कहीं भी रुक सकते थे और कहीं से भी वापस लौट सकते थे। कोई दबाव न था। कहीं खींचे न जा रहे थे; कहीं से धकाए न जा रहे थे। न तो पीछे से कोई धक्का दे रहा था कि जाओ; न आगे से कोई खींच रहा था कि आओ। प्रत्येक कदम अपने आप में पूरा था। घूमने में खेल था; कर्म की स्पृहा न थी।
परमात्मा कहीं पहुंचने को नहीं कर रहा है। यह परमात्मा का, अस्तित्व का, कोई उद्देश्य नहीं है। यह बड़ी कठिन बात है समझनी।
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अस्तित्व निरुद्देश्य है। निरुद्देश्य ही खिलते हैं फूल। निरुद्देश्य ही गीत गाते हैं पक्षी। निरुद्देश्य ही चलते हैं चन्द्रमा और तारे। निरुद्देश्य ही पैदा होता है जीवन और विलीन। हमें बहुत कठिन हो जाएगा इसे समझना।
*मनुष्य का मन उद्देश्य के बिना कुछ भी नहीं समझ पाता। हमें लगता है, बिना उद्देश्य! फिर किसलिए? हम फिर से पूछते हैं कि फिर उद्देश्य क्या? निरुद्देश्य है जीवन। इसका दूसरा यदि पर्याय बनाएं, तो होगा जीवन आनंद है अपने में, उसके बाहर कहीं कोई पहुंचने की बात नहीं है।*
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श्री कृष्ण यही कहते हैं। कहते हैं, मेरे लिए कोई ऐसा नहीं है कि जो मैं कर रहा हूं, उसमें कोई मजबूरी, नहीं है; आनंद है। सुबह बच्चे उठकर खेल रहे हैं, नाच रहे हैं, बस, ऐसे ही। बस, ऐसे ही सारा अस्तित्व आनंदमग्न है, आनंद के लिए ही। इसलिए श्री कृष्ण के जीवन को हम लीला कहते हैं। राम के जीवन को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन बड़ा गंभीर है। बड़े उद्देश्यपूर्ण चलते हैं। एक-एक बात का चुनाव है। यह करेंगे और यह न करेंगे। ऐसा ठीक है और ऐसा गलत है।
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श्री राम के जीवन में उद्देश्य की बड़ी स्पष्टता है। कृष्ण के जीवन में उद्देश्य बिलकुल ही मटियामेट हो जाते हैं। श्री कृष्ण के जीवन में बड़ी निरुद्देश्यता है। इसलिए राम को हम आंशिक अवतार ही कह पाए; पूर्ण अवतार न कह सके। कृष्ण को हम पूर्ण अवतार कह सके, क्योंकि परमात्मा जिस तरह पूरा निरुद्देश्य है, ऐसा ही श्री कृष्ण भी पूरा निरुद्देश्य है। एक-एक कृत्य खेल की तरह है, काम की तरह नहीं है।
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परन्तु श्री कृष्ण जो यह वक्तव्य देते हैं, फल की स्पृहा नहीं है। हमें समझना बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि हम तो कहेंगे, फल की स्पृहा न हो, तो हम कदम ही न उठाएंगे। यदि फल न पाना हो, तो हम कुछ करेंगे ही क्यों? हमें तो सारा कर्म फल प्रेरित है। फल आता हो, तो हम करेंगे। फल न आता हो तो? फल न आता हो, तो हम क्यों करेंगे? हमारा जीवन वर्तमान में नहीं, सदा भविष्य में है। हम आज नहीं जीते; सदा आने वाले कल में जीते हैं।
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कल कभी जी नहीं सकते, केवल विचार में ही रहते हैं। इसलिए हम जीते कम, मरते ही ज्यादा हैं। हम कहते हैं, कल। फल सदा कल है। फल का अर्थ, कल। फल कभी आज नहीं है। फल आज हो नहीं सकता। आज तो कर्म ही हो सकता है; फल तो कल ही होगा। कल भी आ जाएगा, तब भी फल आगे कल पर सरक जाएगा। कल फिर जब आज बनेगा, तो कर्म ही होगा।
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*आज सदा कर्म है; फल सदा कल है। आज, वर्तमान। कल, भविष्य। फल सदा कल्पना में है। फल का कोई अस्तित्व नहीं है; अस्तित्व तो कर्म का है। परमात्मा भविष्य में नहीं जीता, क्योंकि परमात्मा कल्पना में नहीं जीता।*
कल्पना में कौन जीते हैं? इसे समझ लें, तो श्री कृष्ण की यह बात समझ में आ जाएगी। कल्पना में कौन जीते हैं? जिनका जीवन विषाद से भरा है, दुख से भरा है, वे कल्पना में जीते हैं। क्यों? क्योंकि कल्पना से वे अपने विषाद की परिपूर्ति करते हैं।
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आज अस्तित्व है; कल तो केवल कल्पना है। कल कभी आता नहीं। पर आज है पीड़ा से भरा। यदि कल भी न रह जाए, तो बहुत कठिन हो जाए। यह जो हमारी दुख से भरी स्थिति है, इसके लिए हम फलातुर हैं। परमात्मा आनंदमग्न है। फलातुर होने की आवश्यकता नहीं है। केवल दुखी व्यक्ति फलातुर होता है; दुखी चित्त फलातुर होता है। आनंदित चित्त फलातुर नहीं होता। आप भी जब कभी आनंद में होते हैं, तो भविष्य मिट जाता है और वर्तमान रह जाता है।
*जीवन के जो भी आनंद के क्षण हैं, वे वर्तमान के क्षण हैं। परमात्मा तो प्रतिपल आनंद में है। इसलिए उसकी कोई फलाकांक्षा नहीं हो सकती।*
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श्री कृष्ण कहते हैं, जिस दिन कोई इस सत्य को समझ लेता है, उस दिन वह भी फलातुर नहीं रह जाता। फलातुर व्यक्ति दुखी होता चला जाता है। यह दुष्टचक्र है। दुखी होंगे, तो फल की आकांक्षा करेंगे। फल की आकांक्षा करेंगे, दुखी होंगे। ये जुड़ी हुई बातें हैं दोनों। क्यों? दुखी होंगे, तो इस को ऐसे समझा की फल की आकांक्षा क्यों करेंगे? क्योंकि इस क्षण के दुख को मिटाने का भविष्य की कल्पना के अतिरिक्त आपके पास कोई भी उपाय नहीं है।
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श्री कृष्ण उसी उपाय को बताते हैं, परन्तु वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमें यही दिखाई पड़ता है कि कल्पना में भूल जाओ। इस क्षण को भूल जाओ। भरोसा रखो, कल सब ठीक हो जाएगा। आज जीवन अभिशाप है, कल वरदान बन जायेगा। आज कांटे हैं, कल फूल हो जाएंगे। भरोसा रखो, कल तो आने दो; कल सब ठीक हो जाएगा। कल तक प्रतीक्षा करने में इससे सहारा मिल जाता है। सांत्वना बन जाती है। फिर कल आ जाता है।
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परन्तु दुख के कारण फल के तीर हमने भविष्य में पहुंचाए। दुख के कारण कामना के सेतु बनाए, इंद्रधनुष के सेतु, जिन पर चल नहीं सकते, जो केवल दिखाई पड़ते हैं। पास जाओ, खो जाते हैं। इसलिए कभी इंद्रधनुष के पास नहीं जाना चाहिए। खो जाता है। दूर से लगता है कि बड़ा सेतु बना है। चाहो तो जमीन से आकाश में चले जाओ चढ़कर।
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*तो इच्छाओं के सेतु बनाते हैं कल में। बड़े प्रीतिकर लगते हैं। इंद्रधनुष के सब रंग होते हैं उनमें। सम्भवतय इंद्रधनुष से भी ज्यादा रंग होते हैं। फिर कल आता है और इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ता कि कहां है। तब दुख पैदा होता है। दुख था, इसलिए इंद्रधनुष बनाया; फिर इंद्रधनुष नहीं मिलता, तो दुख पैदा होता है। फिर और बड़े इंद्रधनुष बनाते हैं। लगता है, शायद छोटे बनाए थे, इसलिए मिल नहीं सके। लगता है, शायद थोड़ी कम मेहनत की, इसलिए कल्पनाएं अधूरी रह गईं। लगता है, शायद थोड़ा दौड़ने में कंजूसी हुई, इसलिए पहुंच नहीं पाए। और जोर से दौड़ो, और बड़े धनुष बनाओ, और फैलाओ कल्पना के जाल को, तो कल तृप्ति होगी।*
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फिर वह कल भी आ जाता है। फिर वे कल्पना के जाल भी अधूरे और टूटे के टूटे रह जाते हैं। टूटे हुए इंद्रधनुष फिर बड़ा दुख देते हैं। फिर और बड़ा करो। फिर जीवन से मृत्यु तक यही करते रहो। बनाओ इंद्रधनुष और खंडों को बटोरो। टूटे हुए इंद्रधनुषों को इकट्ठे करते चले जाओ। फिर अंत में जीवन एक खंडहर, के काम का, और किसी काम का नहीं। खंडहर पुरातत्व के शोधियों के काम का। हाथ में कुछ भी नहीं; केवल आशाओं के खंडहर; भग्न आशाओं के सेतु; खो गए सब, और मृत्यु सामने है। फिर सेतु बनाना भी कठिन हो जाता है। इसलिए मृत्यु से हम डरते हैं।
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मृत्यु से डरने का कारण यह नहीं है कि मृत्यु से हम डरते हैं। क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे? डरने के लिए भी थोड़ा परिचय आवश्यक है। मृत्यु से हम नहीं डरते। डरते हम इससे हैं कि मृत्यु का अर्थ है, कल अब नहीं होगा। अब आगे कल नहीं है। फिर हमारे इंद्रधनुषों का क्या होगा? फिर हमारी कल्पनाओं के जाल का क्या होगा? हम तो सदा कल में ही जीए थे; आज तो कभी जीए नहीं थे। मृत्यु कहती है, बस, अब आज है; कल नहीं। तो हम क्या करें?
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*श्री कृष्ण कहते हैं, अभी और यहीं सब है। फल की स्पृहा नहीं है मुझे। दो कारणों से। एक तो आनंदमग्न चित्त अभी और यहीं होता है। और जैसा मैंने कहा कि दुख से कल की आकांक्षा पैदा होती; कल की आकांक्षा से दुख घना होता; ऐसे ही यह भी आपसे कहूं, आनंदित चित्त में कल की आकांक्षा पैदा नहीं होती। और कल की आकांक्षा जिस चित्त में पैदा नहीं होती, उसका आनंद सघन होता है। उसका भी अपना एक वर्तुल है।*
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आनंद की जिन्हें भी तलाश है, वे कल से मुक्त हो जाएं। सत्य की जिन्हें भी खोज है, वे भविष्य को विदा कर दें। हां, दुख की जिन्हें तलाश है, वे कल को खोजें। नर्क के द्वार पर जिनको खटखटाना है, वे भविष्य में सेतु बनाएं स्वप्नों के। स्वर्ग के द्वार को जिन्हें खोल लेना है, उनके लिए द्वार अभी और यहीं है।

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