गुरुवार, 28 नवंबर 2019

स्मरण का अंग ८०/८३


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि ।* 
*हरि सुख एक पलक का, ता सम कह्या न जाहि ॥८०॥* 
इस लोक तथा परलोक के सभी सुख भजनानन्द की अपेक्षा तुच्छ एवं क्षणिक है; क्योंकि वे सभी सुख नाशवान् तथा पुनर्जन्म के देने वाले हैं । भजनानन्द तो स्वयं मुक्ति का प्रदाता होने से ब्रह्मानन्द की अपेक्षा भी उत्कृष्ट है । इसीलिये कभी मुक्ति की इच्छा भी नहीं करते । स्कन्दपुराण में लिखा है- 
“भगवान् कृष्ण का नाम मधुर से भी मधुरतम है । मंगलों का भी मंगल है । समग्र शास्त्र वेद-वेदांगरूपी लताओं का सारभूत फल है । चैतन्यस्वरूप है । एक बार भी जिसने श्रद्धा से या विना श्रद्धा के भी उसका उच्चारण कर लिया तो हे भृगुवर ! वह मनुष्यमात्र को तार देता है । किसी भक्त ने भी कहा है- 
“अरि तूं कौन है? मैं मुक्ति हूँ । तो फिर अचानक तूं यहाँ कैसे आ गयी? आपके द्वारा भगवान् कृष्ण का नाम स्मरण करने के कारण मैं आपकी दासी बनने के लिये आयी हूँ । तब तो तूं दूर ही ठहर ! मुझ निरपराध भक्त का अनार्य(अनिष्ट) करने के लिये तूं यहाँ क्यों आयी हो? तुम्हारी तो गंधमात्र से ही भगवन्नामरूपी चन्दन के गन्धरस का लोप हो जायेगा, अतः तुम मुझसे दूर ही रहो ! ॥८०॥” 
*स्मरण नाम पारिख लक्षण* 
*दादू राम नाम सब को कहै, कहिबे बहुत विवेक ।* 
*एक अनेकों फिर मिले, एक समाना एक ॥८१॥* 
भक्त सकाम-निष्काम भेद से दो प्रकार के मने गये हैं । यों तो पूर्वजन्मार्जित पुण्य कर्मराशिरूप होने से, सभी श्रेष्ठ हैं, अन्यथा वे मुझे कभी भज ही नहीं सकते । अतः वे सब उदार ही हैं; तथापि इनमें जो सकाम भक्त हैं वे कामना के कारण उन उन लोगों में कामनाजन्य फल का पूर्ण उपभोग कर पुनः इसी संसार में आ जाते हैं । और निष्काम भक्त मुक्त हो जाता है; क्योंकि गीता में ज्ञानी तो मेरी ही आत्मा है” ऐसा भगवान् का वचन मिलता है । वही(गीता में) यह वचन भी मिलता है- 
“ज्ञानी भक्त नित्य ही मेरे चिन्तन में लगा रहता है, अतः वह नित्युक्त व एकभक्ति वाला होने से सकाम भक्त की अपेक्षा विशिष्ट है । मैं ज्ञानी को प्रिय हूँ और ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है ॥८१॥” 
*दादू अपणी अपणी हद में, सब कोई लेवे नाउँ ।* 
*जे लागे बेहद सौं, तिन की मैं बलि जाउँ ॥८२॥* 
कितने ही भक्ति निःसीम परमात्मा को ससीम समझ कर भजते हैं’ जैसे शक्ति-शक्ति की ही उपासना करते हैं और गणपति को मानने वाले गणपति की । शैव शिव को ही पूजते हैं तो वैष्णव विष्णु को । यद्यपि ये सब भगवान् को ही मानते हैं, अतः श्रेष्ठ ही है; परन्तु जो परमात्मा को सर्वव्यापक समझकर सर्वत्र उसी को भजते हैं, ऐसे भक्त बहुत कम हैं । गीता में भी कहा है- 
“सब कुछ वासुदेव ही हैं- ऐसा मानकर भक्ति करने वाला महात्मा बहुत कठिनाई से लोक में दिखायी देता है ।” 
ऐसे भक्तों के श्रीचरणों में मैं नतमस्तक हूँ ॥८२॥ 
*स्मरण नाम अगाधता* 
*कौण पटंतर दीजिये, दूजा नाहीं कोइ ।* 
*राम सरीखा राम है, सुमिर्यां ही सुख होइ ॥८३॥* 
राम सच्चिदानन्द रूप होने से एक ही है । राम के सदृश कोई दूसरा राम है ही नहीं । जैसे आकाश के एक होने से उससे भेद की कल्पना नहीं की जा सकती, वैसे ही राम भी एक ही है । अतः उसमें कोई भेद नहीं कर सकता । जैसे-आकाश आकाश की तरह ही है, सागर सागर के समान ही है । इसलिये ‘राम कैसा है’- ऐसी शंका को मन से हटाकर उसका भजन करना चाहिये । इसी में सार है ।
(क्रमशः)

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