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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*दादू एकै अलह राम है, समर्थ सांई सोइ ।*
*मैदे के पकवान सब, खातां होइ सु होइ ॥२०॥*
ब्रह्म के जितने भी नाम है, वे सब ब्रह्मप्राप्ति के साधन हैं । अतः किसी नाम विशेष के ग्रहण में सन्तों का कोई आग्रह नहीं है । सभी नाम-चाहे वह अल्ला हो, चाहे राम हो-फल देने में समर्थ ही है । जैसे मैदा के बने पक्वान्नों का प्रयोजन क्षुधा की निवृत्ति एवं तृप्ति है, वैसे ही नाम-साधना का भी ब्रह्म प्राप्ति प्रयोजन है ॥२०॥
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*सगुण निर्गुण ह्वै रहै, जैसा है तैसा लीन ।*
*हरि सुमिरण ल्यौ लाइए, का जाणों का कीन ॥२१॥*
श्रुति के अनुसार ब्रह्म के अमूर्त, साकार, निराकार, सगुण निर्गुण, व्यक्त अव्यक्त-ये ददोनों ही रूप हैं । दोनों की उपासना का फल भी श्रीदादूदेव के मत से मोक्ष ही है । अतः साधक यथारुचि दोनों में से किसी की भी उपासना करे । क्योंकि सगुण-निर्गुण का भेद उपाधिकृत होने से मिथ्या ही हैई; क्योंकि उपाधि स्वयं मिथ्या है । श्वेताश्वतरउपनिषद् में लिखा है-
“जो परमात्मा आदि और अन्त से रहित तथा दुर्गम संसार में व्याप्त है, जो विश्व का स्त्रष्टा है अनेक रूपसे स्थित है, जिस अकेले ने ही सकल विश्व को घेर रखा है उसी परमात्मदेव को जानकर जीव समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है ।”
“वह परमेश्वर प्रेमभाव से ही ग्रहण करने योग्य है । वह शरीर रहित है, जगत की उत्पत्ति और संहार करने वाला है और कल्याण स्वरूप है । षोडश कलाओं के उत्पादक उस परब्रह्म परमात्मा को जो जान लेता है वह शरीर बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । उसका फिर जन्म-मरण नहीं होता ।”
अन्यत्र भी कहा है - “भगवान् भक्तवत्सल हैं, अतः उपासकों की कार्य सिद्धि के लिये पञ्चमूर्ति रूप धारण कर लेते हैं । अतः उपासकों के कार्य के लिये ही ब्रह्म में रूप की कल्पना की गयी है ।”
वह सर्वेश्वर, सर्वमय, सर्वभूतहितकारी, सर्वोपकार हेतु निराकार होते हुए भी साकार बन जाता है । भागवत में भी लिखा है-
“भक्त की वाणी को सत्य सिद्ध करने के लिये सर्वत्र अपनी व्यापकता को दिखाने के लिये सभा में अद्भुत रूप धारण करते हुए नृसिंह रूप से प्रकट हुए जो पूर्णतः मृग(पशु) ही थे, न पूर्ण मनुष्य ही ॥२१॥”
(क्रमशः)
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