मंगलवार, 26 नवंबर 2019

= १८३ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ ।*
*मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥*
===========================
साभार ~ oshoganga.blogspot.com
.
*आसक्तिरहित का अर्थ है, इस जगत में मेरा कुछ भी नहीं है। परन्तु मेरे के बड़े विस्तार हैं। मेरा पुत्र भी मेरी आसक्ति है। मेरा घर भी मेरी आसक्ति है। मेरा धर्म भी मेरी आसक्ति है। मेरा शास्त्र भी मेरी आसक्ति है। मेरा परमात्मा तक मेरी आसक्ति है। जहां-जहां मेरा जुड़ेगा, वहां-वहां आसक्ति जुड़ जाएगी। जहां-जहां से मेरा विदा हो जाएगा, वहां-वहां से आसक्ति विदा हो जाएगी।*
.
*और याद रहे, मात्र मेरे का भाव ही आसक्ति हैं, घर, पुत्र पत्नी, धर्म शास्त्र परमात्मा, ये आसक्तियां नहीं हैं।*
परन्तु मेरा कब विदा होगा? जब तक मैं है, तब तक मेरा विदा नहीं होगा। एक स्थान से हटेगा, दूसरे स्थान पे लग जाएगा। आश्चर्यजनक है मनुष्य, मेरे के बिना मानता ही नहीं है। मेरे को लेकर ही चलता है साथ। मंदिर भी जाए, तो मेरा बना लेता है। परमात्मा का कोई मंदिर नहीं है पृथ्वी पर। कोई इसका मेरा मंदिर है, कोई उसका मेरा मंदिर है। इसलिए तो फिर मेरों में कभी-कभी टक्कर हो जाती है।
.
अभी तक हम पृथ्वी को ऐसा नहीं बना पाए, जहां कि हम वह मंदिर बना सकें, जो कि मेरा न हो, तेरा हो, उसका हो,परमात्मा का हो। कोई मंदिर नहीं बना पाए। सब आशाएं की थीं मंदिर बनाने की इसी तरह कि परमात्मा का बन जाए, परन्तु सब मंदिर अंत में किसी के मेरे मंदिर सिद्ध होते हैं।
*यह जो मेरा है, यह बदल सकता है। मिटता तब तक नहीं, जब तक मैं भीतर केंद्र पर है।*
.
ऐसा समझें कि एक दीया जल रहा है। और दीए की रोशनी चारों तरफ दीवार पर पड़ रही है। वह जो दीवार पर रोशनी पड़ रही है, वह मेरा है। और वह जो दीए की ज्योति जल रही है, वह मैं है। जब तक मैं की ज्योति जलती रहेगी, तब तक मेरे की रोशनी कहीं न कहीं पड़ती रहेगी। दीवार से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी; कहीं और से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी। जब तक कि ज्योति न बुझ जाए, मैं की, वह जो मैं का, अहंकार का बीच में जलता हुआ दीया है, वह न बुझ जाए, तब तक मेरा बनता ही रहेगा।
.
*आसक्तिरहित केवल वही हो सकता है, जो अहंकाररहित है।*
*आसक्ति अहंकार के जुड़ने का परिणाम है। आसक्ति अहंकार का विकीरण है। जैसे दीए से किरणें दौड़ती हैं, ऐसा मैं से मेरा दौड़ता है। और जहां भी पड़ जाता है, वहीं पकड़ जाता है।*
.
और भी एक बड़ी अच्छी बात है कि जिसे हम मेरा समझ लेते हैं, वह हमारे मैं से तादात्म्य हो जाता है। तब जब कोई आसक्तिरहित कर्म करता है, तो उसका कर्म कैसा है? उसका कर्म कहीं भी मेरे को निर्माण नहीं करता। उसका जीवन कहीं भी किसी से तादात्म्य स्थापित नहीं करता। वह किसी को नहीं कहता, मेरा। कहीं भी गहरे में उसके भाव मेरे का उठता नहीं। जीता है, मेरे से रहित होकर जीता है। तब जीवन यज्ञ हो जाता है। तब ऐसा कर्म आसक्तिरहित, जीवन को यज्ञ बना देता है। तब पूरा जीवन एक पवित्र हवन हो जाता है।
.
ऐसा पुरुष, अर्जुन से श्री कृष्ण कहते हैं, फिर सारे बंधन उसके क्षीण हो जाते हैं। फिर कोई बंधन का उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि बंधन पैदा ही होते हैं मेरे से। बंधन पैदा ही होते हैं मैं से। मैं से ही जन्मते हैं अंकुर और बनते हैं जंजीरें। मैं के ही आधार पर ढालते हैं हम अपने कारागृह। मैं से ही हम सजा लेते हैं अपने कारागृहों की दीवारों को। परन्तु इससे भेद नहीं पड़ता। यदि हमने कारागृह की जंजीरों को सोने की भी बना लिया, और यदि हमने कारागृह की दीवारों को सुंदर चित्रों से भी सजा लिया, तो भी कारागृह कारागृह है और हम कैदी हैं। हम सब अपनी कैद को अपने साथ लेकर चलते हैं। वह मेरे की कैद हमारे साथ चलती रहती है।
.
श्री कृष्ण कहते हैं, आसक्तिरहित होकर पुरुष जब बर्तता है कर्मों में, तो उसका जीवन यज्ञ हो जाता है। मैं का जो पागलपन है, वह विदा हो जाता है। मेरे का विस्तार गिर जाता है। आसक्ति का जाल टूट जाता है। तादात्म्य का भाव खो जाता है। फिर वह व्यक्ति जैसा भी जीए, वह व्यक्ति जैसा भी चले, फिर वह व्यक्ति जो भी करे, उस करने, उस जीने, उस होने से कोई बंधन निर्मित नहीं होते हैं। क्यों? क्योंकि मैं की टकसाल के अतिरिक्त मनुष्य के बंधन निर्माण का कहीं कोई कारखाना नहीं है। क्योंकि अहंकार के अतिरिक्त जंजीरों को ढालने के लिए कोई और फौलाद नहीं है। क्योंकि मैं के अतिरिक्त मनुष्य को अंधा करने के लिए, गङ्ढों में गिराने के लिए और कोई जहर नहीं है। इसलिए आसक्तिरहित।
.
*परन्तु आसक्तिरहित वही होगा, जिसका मेरा खो जाए। मेरा उसका खोएगा, जिसका मैं खो जाए। शून्य की तरह ऐसा पुरुष जीता है। शून्य की तरह जीना यज्ञरूपी जीवन को उपलब्ध कर लेना है। फिर कोई बंधन निर्मित नहीं होते हैं।*

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें