मंगलवार, 26 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।*
*शब्द गुरु का ताजणां, कोइ पहुंचै साधु सुजाण ॥*
*अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहि कलि माहिं ।*
*दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि मरि जाहिं ॥*
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हे अर्जुन जो कोई भी मनुष्य दोषबुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुए सदा ही मेरे मत के अनुसार वर्तते हैं। वे पुरुष संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हैं, उन संपूर्ण ज्ञानों में भ्रमित चित्त वालों को तू कल्याण मार्ग ते भ्रष्ट हुए ही जान। क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से दूर हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी अपनी कृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर हममें किसी का हठ क्या करेगा।
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श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि जो मैंने कहा है, श्रद्धापूर्ण हृदय से उसे अंगीकार करके जो जीता और कर्म करता है, वह समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है, वह समस्त कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।
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श्रद्धा शब्द को थोड़ा समझेंगे, तो इन श्लोकों के हृदय के द्वार खुल जाएंगे। श्रद्धा शब्द के आस पास बड़ी भ्रांतियां हैं। सबसे बड़ी भ्राति तो यह है कि श्रद्धा का अर्थ लोग करते हैं, विश्वास, या कुछ लोग श्रद्धा का अर्थ करते हैं, अंधविश्वास। दोनों ही अर्थ गलत हैं। क्यों जो भी विश्वास करता है, उसके भीतर अविश्वास सदा ही विधमान होता है।
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वास्तव में अविश्वासी के अतिरिक्त और कोई विश्वास करता ही नहीं है। यह बात उलटी लगेगी। परन्तु विश्वास की आवश्यकता ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है। जैसे बीमार को दवा की आवश्यकता पड़ती है, ऐसे अविश्वासी चित्त को विश्वास की आवश्यकता पड़ती है। यदि भीतर संदेह है अविश्वास है, उसे दबाने के लिए विश्वास, को हम पकड़ते हैं।
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श्रद्धा विश्वास नहीं है। भीतर अविश्वास हो और उसे दबाने के लिए कुछ पकड़ा हो, तो उसका नाम विश्वास है। और भीतर अविश्वास न रह जाए, शून्य हो जाए, तब जो शेष रह जाती है, वह श्रद्धा है। जैसे एक व्यक्ति को विश्वास न हो कि ईश्वर है और विश्वास करे, जैसा कि अधिक लोग किए हुए हैं, विश्वास बिलकुल नहीं है, लेकिन किए हुए हैं। विश्वास भी नहीं है, अविश्वास करने की हिम्मत भी नहीं है। भीतर अविश्वास है गहरे में, ऊपर से विश्वास के वस्त्र ओढ़े हुए हैं। ऐसा विश्वास, त्वचा से ज्यादा गहरा नहीं होता। जरा जोर से खरोंचो, भीतर का अविश्वास बाहर निकल आता है।
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श्रद्धा का ऐसा अर्थ नहीं है। श्रद्धा बहुत ही बहुमूल्य शब्द है। श्रद्धा का अर्थ है, जहा अविश्वास नहीं रहा। जब भीतर कोई अविश्वास नहीं होता, तब श्रद्धा फलित होती है। श्रद्धा अविश्वास का अभाव है। विश्वास की उपस्थिति नहीं, अविश्वास की अनुपस्थिति। इसलिए कोई व्यक्ति कितना ही विश्वास करे, कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता। उसके भीतर अविश्वास खड़ा ही रहता है और कांटे की तरह चुभता ही रहता है।
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जैसे हम बोलते हैं, आत्मा अमर हैं, और मृत्यु से डरते भी हैं, तो ये कैसा विस्वाश ? इसके पीछे अविश्वास खड़ा है। कहते है, आत्मा अमर है, और डरते हैं मृत्यु से। यदि आत्मा अमर है, तो मृत्यु का डर?
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श्री कृष्ण भी कह सकते थे, विश्वासपूर्वक जो मेरी बात को मानता है, वह कर्म से मुक्त हो जाता है। उन्होंने वह नहीं कहा। यद्यपि गीता के अर्थ करने वाले वही अर्थ किए चले जाते हैं। वे लोगों को यही समझाए चले जाते हैं, विश्वास करो। श्री कृष्ण कह रहे हैं, श्रद्धा, विश्वास नहीं। श्रद्धा कोई मूल्य नहीं। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि श्रद्धापूर्वक, हृदय की समग्रता से, जिसके भीतर विपरीत कुछ स्वर ही नहीं है, जिसके भीतर अविश्वास की रेखा भी नहीं है, वही व्यक्ति इस मार्ग पर चलकर कर्मों को क्षीण करके मुक्त हो जाता है।
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ध्यान रहे, श्रद्धा का विरोध अविश्वास से नहीं है, श्रद्धा का विरोध विश्वास से है। विश्वाश करने वाले लोग कभी भी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होते हैं। यह बहुत उलटी सी बात लगेगी। क्योंकि हम सोचते हैं, पहले विश्वास करेंगे, फिर धीरे धीरे श्रद्धा आ जाएगी। ऐसा कभी नहीं होता। क्योंकि जिसने विश्वास कर लिया, वह झूठी श्रद्धा में पड़ जाता है। और झूठे सिक्के वास्तविक सिक्कों के मार्ग में अवरोध बन जाते हैं। आप ठीक से जांच कर लेना कि आपके पास जो है, वह विश्वास है कि श्रद्धा है।
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और एक बात और, विश्वास सदा मिलता है दूसरों से, श्रद्धा सदा आती है स्वयं से। श्रद्धा का बीज जब रहस्य की भूमि में गिरता है, तभी अंकुरित होता है। रहस्य की भूमि में श्रद्धा अंकुरित होती है। श्रद्धावान से मेरा अर्थ कभी भी भूलकर विश्वास करने वाला नहीं है श्रद्धावान अर्थात वह जो जीवन को रहस्य की भांति अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति, श्री कृष्ण कहते हैं, यदि मेरे मार्ग पर आ जाए, और ऐसा व्यक्ति सदा ही पूरा का पूरा आ जाता है। क्योंकि रहस्य खंड खंड नहीं बनाता, तर्क खंड खंड बनाता है।

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