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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू एकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाइ ।*
*आपा भूलै आन सब, एकै रहै समाइ ॥*
*दादू पीवै एक रस, बिसरि जाइ सब और ।*
*अविगत यहु गति कीजिये, मन राखो इहि ठौर ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com
जिस दिन मनुष्य के मन में दूसरों से मिलने वाले सम्मान का कोई मूल्य नहीं रह जाता—न निषेधात्मक, न विधायक, न उनके अपमान का कोई मूल्य रह जाता है; उसके स्वयं के पास क्या है, इससे वह अपनी सत्ता की गणना नहीं करता और उसके पास क्या नहीं है, इससे अपने भीतर कमी का अनुभव नहीं करता - जिस क्षण बेशर्त पूर्ण हो जाता है, जिस क्षण पूर्णता अकारण हो जाती है, जिसमें कोई बाहरी कारण नहीं होता—उस क्षण मनुष्य जाने कि उसने जाना। उसके पहले जानकारी है और जानकारी को भूल से जानना न समझ ले।
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पुरानी कथा है जैन—शास्त्रों में, मिथिला के महाराजा नेमी के संबंध में। उन्होंने कभी शास्त्र नहीं पढ़े। उन्होंने कभी अध्यात्म में रुचि नहीं ली। वह उनका लगाव ही न था। उनकी चाहत ने वह दिशा कभी नहीं पकड़ी थी। बूढ़े हो गए थे, तब बड़े जोर का दाह्य—ज्वर उन्हें पकड़ा। भयंकर ज्वर की पीड़ा में पड़े हैं। उनकी रानियां उनके शरीर को शीतल करने के लिए चंदन और केसर का लेप करने लगीं। रानियों के हाथ में सोने की चूड़ियां थीं, चूड़ियों पर हीरे—जवाहरात लगे थे; लेकिन लेप करते समय उनकी चूड़ियां खड़खड़ाती और बजती। सम्राट नेमी को वह खड़खड़ाहट की आवाज, वह चूड़ियों का बजना बड़ा अरुचिकर मालूम हुआ। और उन्होंने कहा, हटाओ ये चूड़ियां, इन चूड़ियों को बंद करो ! ये मेरे कानों में बड़ी कर्ण—कटु मालूम होती हैं।
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सिर्फ मंगल—सूत्र के खयाल से एक—एक चूड़ी बचा कर, बाकी चूड़ियां रानियों ने निकाल कर रख दीं। आवाज बंद हो गई। लेप चलता रहा। *नेमी भीतर एक महाक्रांति को उपलब्ध हो गए। यह देख कर कि दस चूड़ियां थीं हाथ में तो बजती थीं; एक बची तो बजती नहीं। अनेक हैं तो शोरगुल है। एक है तो शांति है। कभी शास्त्र नहीं पढ़ा, कभी अध्यात्म में कोई रस नहीं रहा। उठ कर बैठ गए। कहा, मुझे जाने दो। यह दाह्य—ज्वर नहीं है, यह मेरे जीवन में क्रांति का संदेश ले कर आ गया। यह प्रभु—अनुकंपा है।*
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रानियां पकड़ने लगीं। उन्होंने समझा कि शायद ज्वर की तीव्रता में विक्षिप्तता तो नहीं हो गई ! उनका भोगी—रूप ही जाना था। योग की तो उन्होंने कभी बात ही न की थी, योगी को तो वे पास न फटकने देते थे। भोग ही भोग था उनके जीवन में। कहीं ऐसा तो नहीं कि सन्निपात हो गया है ! वे तो घबड़ा गईं, वे तो रोकने लगीं।
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सम्राट ने कहा, घबड़ाओ मत। न कोई यह सन्निपात है। सन्निपात तो था, वह गया। तुम्हारी चूड़ियों की बड़ी कृपा ! कैसी जगह से परमात्मा ने सूरज निकाल दिया, कहा नहीं जा सकता ! चूड़ियां बजती थीं तुम्हारी, बहुत तुमने पहन रखीं थीं। *एक बची, शोरगुल बंद हुआ—उससे एक बोध हुआ कि जब तक मन में बहुत आकांक्षाएं हैं तब तक शोरगुल है। जब एक ही बचे आकांक्षा, एक ही अभीप्सा बचे, या एक की ही अभीप्सा बचे—और ध्यान रखना एक की ही अभीप्सा एक हो सकती है।
संसार की अभीप्सा तो एक हो ही नहीं सकती—संसार अनेक है। तो वहां अनेक वासनाएं होंगी। एक की अभीप्सा ही एक हो सकती है।*
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_*नेमी तो उठ गए, ज्वर तो गया। वे तो चल पड़े जंगल की तरफ। न शास्त्र पढ़ा, न शास्त्र जानते थे। लेकिन, शास्त्र पढ़ने से कब किसने जाना ! जीवन के शास्त्र के प्रति जागरूकता चाहिए तो कहीं से भी इशारा मिल जाता है। अब चूड़ियों से कुछ लेना—देना है? कभी सुना, चूड़ियों और बोध का कोई संबंध? जुड़ता ही नहीं। लेकिन बोध के किसी क्षण में, जागरूकता के किसी क्षण में, मौन के किसी क्षण में, कोई भी घटना जगाने वाली हो सकती है।*_
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*एक क्रांति घटती है, जब बाहर का मनुष्य छोड़ता है, भीतर का उसी क्षण मिल जाता है। लोगों ने तो एक ही बात देखी कि उसने बाहर की संपत्ति छोड़ दी, दूसरी बात जान लेना आवश्यक है - जिसने बाहर की संपत्ति यहां छोड़ी कि भीतर की संपत्ति वहां मिली। वह साथ ले कर गया। भीतर का ही साथ जाता है। बाहर में उलझे होने के कारण भीतर का दिखाई नहीं पड़ता। जब भीतर का दिखाई पड़ता है तो बाहर की पकड़ नहीं रह जाती।*
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'आश्चर्य ! कि जैसे सीपी के अज्ञान चांदी की भ्रांति में लोभ पैदा होता है, वैसे ही आत्मा के अज्ञान से विषय— भ्रम के होने पर राग पैदा होता है।' रस्सी पड़ी देखी और समझा कि सांप है तो भय पैदा हो जाता है। सांप है नहीं और भय पैदा हो जाता है। सांप तो झूठा, भय बहुत सच्चा। मनुष्य भाग खड़ा होता है, घबड़ाहट में गिर भी सकता है; भागने में हाथ—पैर तोड़ ले सकता है और वहां कुछ था ही नहीं, सिर्फ रस्सी थी। सांप ने काम कर दिया।
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ऐसे ही सीपी में कभी चांदी की झलक दिखाई पड़ जाती है। सीपी पड़ी है, सूरज की किरणों में चमक रही है—लगता है चांदी ! चांदी वहाँ है नहीं, सिर्फ लगता है चांदी है। चांदी के लगते ही उठाने का भाव पैदा हो जाता है, मालिक बनने की आकांक्षा हो जाती है। चांदी के भ्रम में भी लोभ पैदा हो जाता है। आश्चर्य कि भ्रम में भी लोभ पैदा हो जाता है ! जहां कुछ भी नहीं है, वहां पाने की आकांक्षा पैदा हो जाती है !
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जहां से कभी किसी को कुछ भी नहीं मिला, वहीं—वहीं मनुष्य टटोलता रहता है। कुछ मिला हो तो भी ठीक। इस पृथ्वी पर कितने लोग हुए कितने अनंत लोग हुए सबने धन खोजा, सब निर्धन मरे। सबने पद खोजा, सबने प्रतिष्ठा खोजी, सब धूल में गिरे। बड़े—बड़े सम्राट पैरों में दबे पड़े हैं, धूल हो गए हैं। किसको क्या मिला है? कुछ मिला हो और मनुष्य खोजे, तब भी ठीक है।
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ऐसा एक सम्राट के जीवन में उल्लेख है कि वह रोज रात अपने घोड़े पर सवार हो कर निकलता था गांव में देखने—कहां क्या हो रहा है, कैसी व्यवस्था चल रही है? छिपे वेष में। वह रोज रात एक आदमी को देखता था—नदी के किनारे, रेत को छानते। उसने एक—दो दफा पूछा भी कि तू क्या करता है आधी—आधी रात तक? उसने कहा, मैं रेत छानता हूं इसमें कभी—कभी चांदी के कण मिल जाते हैं। उनको मैं इकट्ठा करता हूं। वही मेरी जीविका है।
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ऐसा अनेक रातों देख कर एक दिन सम्राट को लगा कि बेचारा मेहनत तो बड़ी करता है, मिलता कुछ खाक नहीं। तो उसने अपना भुज—बंध, जो लाखों रुपये का रहा होगा, निकाल कर चुपचाप रेत में फेंक दिया और चल पड़ा। उस रेत छांनने वाले ने तो देखा भी नहीं। लेकिन थोड़ी देर बाद खोजने पर उसे मिल गया भुज—बंध। दूसरे दिन फिर सम्राट रात आया। उसने सोचा कि आज तो वह रेत छांनने वाला नहीं होगा वहां। लेकिन वह फिर रेत छान रहा था।
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सम्राट ने पूंछा, जो भुज—बंध मैं फेंक गया था; वह तुझे मिल गया है। तू उसे बाजार में बेच भी चूका है। वह भी खबर आ चुकी है। मैं सम्राट हूं, भुज—बंध लाखों रुपये का था। तेरे जीवन के लिए और तेरे बच्चों जीवन के लिए पर्याप्त हैअब तू किस लिए छान रहा है रेत? उसने कहा मालिक : इसी रेत के छांनने मे भुज—बंध मिला; अब तो चाहे कुछ भी हो जाए मैं छांनना छोड़ नहीं सकता। अब तो छानता ही रहूंगा। अब तो यह जिंदगी है और मैं हूं और यह रेत है। जहां ऐसी - ऐसी चीजें मिल सकती हैं—भुज—बंध मिल गया ! अब इसको मैं रोक नहीं सकता।
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*सम्राट ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि उसके तर्क में तो बल है; लेकिन हम इस संसार में क्या खोज रहे हैं जहां किसी को कभी कुछ नहीं मिला? फिर भी रेत छान रहे हैं। कुछ मिला किसी को कभी?*

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