गुरुवार, 14 नवंबर 2019

= *दया निर्वैरता का अंग ९१(२९/३२)* =

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*वाचा बंधी जीव सब, भोजन पानी घास ।*
*आत्म ज्ञान न ऊपजै, दादू करहि विनास ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया निर्वैरता का अंग ९१* 
रज्जब कीड़ी कुंजर सबन सौं, मेट वैरता मंत । 
पीड़ा देत पषाण को, देखहु हजरत दंत ॥२९॥ 
चींटी से हाथी तक सभी प्राणियों से वैरपने का विचार मिटाकर प्रेमकर, देखो, पत्थर को दु:ख देने से हजरत मुहम्मद के दाँत टूट गये थे । मुहम्मद ने पत्थर को गर्म करके अपना पैर तपाया था, उसी पत्थर को युद्ध में किसी ने फैंका था, उसी से दाँत टूटे थे । पत्थर ने भी बैर लिया था । 
कृष्णदेव की बहिन लघु, हती कंस करि खीज१ । 
रज्जब दामिनि२ द्वेष तिहिं, कासों पड़ै सु बीज३ ॥३०॥ 
कृष्णदेव की छोटी बहिन को कंस ने क्रोध१ करके मारा था, उसी वैर से वह बिजली२ होकर आकाश में रहती है और अब भी कंस के नाम राशि कांसो के ऊपर वह बिजली३ पड़ती है । 
हिरणाकशिप अरू होलड़ी१, भये पिशुन२ प्रह्लाद । 
साधू मारत ते भूये, तज हु वैरता बाद३ ॥३१॥ 
हिरण्याकशिप और होलिका१ प्रह्लाद के लिये दुष्ट२ हुये, साधु प्रह्लाद को मारने के लिये कटिवृद्ध हुये तब वे ही मारे गये । अत: व्यर्थ३ वैर को वा वैर-विवाद को छोड़ दो । 
राहु केतु शशि सूर का, देखहु वैर विरोध ।
इहै जान निर्वैर रहु, रज्जब निज परमोध ॥३२॥ 
राहु-चन्द्रमा और केतु -सूर्य का वैर के कारण जो विरोध है, उसे देखो, अब भी ग्रहण होता रहता है । यह जानकर निर्वैर रहना चाहिये, यही निजी उपदेश है । 
(क्रमशः)

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