गुरुवार, 14 नवंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जे पहली सतगुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ ।*
*अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ ॥*
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जैसे गंगा निकलती है गंगोत्री से; फिर बहती है; फिर गिरती है सागर में। जब गंगा सागर में गिरती है, और गंगोत्री से निकलती है, तो बीच में लम्बी दूरी तय करती है। इस गंगा को हम क्या कहें? यह गंगा वही है, जो गंगोत्री से निकली? ठीक वही तो नहीं है; क्योंकि बीच में और न जाने कितनी नदियां, और न जाने कितने झरने उसमें आकर मिल गए। परन्तु फिर भी बिलकुल दूसरी नहीं हो गई है; है तो वही, जो गंगोत्री से निकली।
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तो ठीक परंपरा का अर्थ होता है कि यह गंगा, परंपरा से गंगा है। परंपरा का अर्थ है कि गंगोत्री से निकली, वही है; परन्तु बीच में समय की धारा में बहुत कुछ आया और मिला।
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ऐसा समझें कि सांझ हमने एक दीया जलाया। सुबह हम कहते हैं, अब दीए को बुझा दो; उस दीए को बुझा दो, जिसे सांझ जलाया था। परन्तु जिसे सांझ जलाया था, वह दीए की ज्योति अब कहां है? वह तो प्रतिपल बुझती गई और धुआं होती गई और नई ज्योति आती गई। जिस ज्योति को हमने जलाया था सांझ, वह ज्योति तो हर पल बुझती गई और धुआं होती गई, और नई ज्योति उसकी जगह लेती रही। वह ज्योति तो छलांग लगाकर शून्य में खोती गई, और नई ज्योति का आविर्भाव होता गया। जिस ज्योति को सुबह हम बुझाते हैं, यह वही ज्योति है, जिसको सांझ आपने जलाया था?
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यह वही ज्योति तो नहीं है। वह तो कई बार बुझ गई। परन्तु फिर भी यह दूसरी ज्योति भी नहीं है, जिसको आपने नहीं जलाया था। परंपरा से यह वही ज्योति है। यह उसी ज्योति का क्रम है; यह उसी ज्योति की परंपरा है; यह उसी ज्योति की संतति है।
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और आत्मा की दृष्टि से भी हम एक परंपरा हैं। यह आत्मा कल भी थी, परसों भी थी, किसी और देह में। अरबों-खरबों वर्षों में इस आत्मा की भी एक परंपरा है; शरीर की भी एक परंपरा है। परंपरा का अर्थ है, संतति प्रवाह, क्रम। श्री कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से इसी सत्य को ऋषियों ने एक-दूसरे से कहा।
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*इस श्लोक में एक बात और ध्यान रखें। इसमें श्री कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने कहा। श्रीकृष्ण यह भी नहीं कह रहे कि परंपरा से ऋषियों ने सुना। जब भी कहा गया होगा, तो सुना तो गया ही होगा, परन्तु जोर कहने पर है। कहने वाले का अनिवार्य रूप से ऋषि होना आवश्यक है; सुनने वाले का ऋषि होना आवश्यक नहीं है। जिसने सुना, उसने समझा हो, आवश्यक नहीं है। परन्तु जिसने कहा, उसने न समझा हो, तो कहना व्यर्थ है, कहा नहीं जा सकता।*
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यह भी ध्यान देने योग्य है कि श्री कृष्ण कहते हैं कि ऋषियों ने परंपरा से इस सत्य को कहा, परंपरा से पाया नहीं। किसी ने उनसे कहा हो और उनको मिल गया हो, ऐसा नहीं। जाना होगा। *जानना और बात है, सुन लेना और बात है।*
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परंपरा से जानने के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ, जैसा साधारणतः लिया जाता है, जिससे मैं राजी नहीं हूं। एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि हम शास्त्र को पढ़ लें और जान लें, तो जो हमने जाना, वह हमने परंपरा से जाना। नहीं; वह हमने परंपरा से नहीं जाना। वह हमने केवल रूढ़ि से जाना, रीति से जाना, व्यवस्था से जाना। और उस तरह का जानना ज्ञान नहीं बन सकता। उस तरह का जानना मात्र सूचना का संग्रह होगा, ज्ञान नहीं।
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मात्र शास्त्र पढ़कर कोई सत्य को नहीं जान सकता है। हां, सत्य को जान ले तो शास्त्र में पहचान सकता है। शास्त्र पढ़कर ही कोई सत्य को जान ले, तो सत्य बड़ा सस्ता हो जायेगा। फिर तो शास्त्र का जितना मिली है,उतना ही मूल्य सत्य सत्य का भी होजायेगा। शास्त्र पढ़कर सत्य जाना नहीं जा सकता, केवल पहचाना जा सकता है।
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परन्तु पहचान तो वही सकता है, जिसने जान लिया हो, अन्यथा पहचानना कठिन है। आप मुझे जानते हैं, तो पहचान सकते हैं कि मैं कौन हूं। और आप मुझे नहीं जानते हैं, तो आप पहचान नहीं सकते। जाना नहीं जाता, पुनः जाना जाता है। जानने का मार्ग तो कुछ और है।
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*इसलिए श्री कृष्ण जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, वह परंपरा शास्त्र की परंपरा नहीं है; वह परंपरा जानने वालों की परंपरा है। जैसे परमात्मा ने सूर्य को कहा। परन्तु इसमें स्मरणीय है यह बात कि परमात्मा ने सूर्य को कहा। बीच में सहिंता नहीं है, बीच में शास्त्र नहीं है। सत्य सदा ही परमात्मा से व्यक्ति में सीधा संवाद है। शास्त्र, शब्द बीच में नहीं है।
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दूसरी बात श्री कृष्ण कहते हैं, लुप्तप्राय हो गया वह सत्य। सत्य लुप्तप्राय कैसे हो जाता है? दो बातें इसमें ध्यान देने जैसी हैं। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया, लुप्तप्राय। करीब-करीब लुप्त हो गया। श्री कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया। क्योंकि सत्य यदि बिलकुल लुप्त हो जाए, तो उसका पुनर्आविष्कार असंभव है। उसको खोजने का फिर कोई मार्ग नहीं है।
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सत्य के लुप्तप्राय होने का यही अर्थ है कि कितना ही लुप्त हो जाए, फिर भी असत्य नहीं हो जाता है। सत्य की फीकी प्रतिध्वनि उसमें शेष रहती है। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि को पुनः पहचान सकते हैं। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि की प्रत्यभिज्ञा कर सकते हैं।

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