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*बाबा, कहु दूजा क्यों कहिये,*
*तातैं इहि संशय दुख सहिये॥टेक॥*
*यहु मति ऐसी पशुवां जैसी, काहे चेतत नांहीं ।*
*अपना अंग आप नहिं जानै, देखै दर्पण मांही ॥१॥*
*इहि मति मीच मरण के तांई, कूप सिंह तहँ आया ।*
*डूब मुवा मन मरम न जाना, देखि आपनी छाया ॥२॥*
*मद के माते समझत नांहीं, मैगल की मति आई ।*
*आपै आप आप दुख दीया, देखी आपनी झांई ॥३॥*
*मन समझे तो दूजा नांहीं, बिन समझे दुख पावै ।*
*दादू ज्ञान गुरु का नांहीं, समझ कहाँ तैं आवै ॥४॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. २३१)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *भाग २* *समता*
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गुरु गोविन्दसिंहजी दक्षिण भारत को जाते समय नरेना गांव में दादूपंथ के आचार्य श्री जैतरामजी के अतिथि हुए थे । उनके साथ बाज पक्षी भी था । सब भोजन कर चुके तब जैतरामजी की दृष्टि बाज पर पड़ी थी । उन्होने अपने एक शिष्य से कहा - भाई इसको भी ज्वार डाल दो ।
यह सुनकर गुरु गोविन्दसिंहजी हँसते हुये बोले - यह मांसहारी है, ज्वार नहीं खायेगा ।
जैतरामजी - यह संतों का आश्रम है यहां मांस का क्या काम ? आज तो ज्वार ही खा लेगा । ज्वार डालते ही बाज ने सप्रेम चुग ली ।
इससे गुरु गोविन्दसिंहजी ने जैतरामजी को उच्च कोटि का संत समझकर प्रश्न किया - इस समय हिन्दू धर्म पर जो संकट आ रहा है उससे हम हिन्दू धर्म को कैसे बचा सकते है? इसका सुगम उपाय आपको कौन सा जान पड़ता है ?
जैतरामजी बोले - आप जो शस्त्र बल के द्वारा विधर्मियों को दबाना चाहते है, उससे तो इस समय सफलता मिलना संभव नहीं ज्ञात होता । किन्तु समता की भावना प्रकट करके हम उन्हें दबा सकते हैं। इससे पुन: भारत में शान्ति का साम्राज्य सुगमता से जम सकता है ।
इस कथा से सूचित होता है कि - समता से ही सच्ची विजय होती है ।
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###

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