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*दादू गल काटैं कलमा भरैं, अया विचारा दीन ।*
*पंचों वक्त नमाज गुजारैं, साबित नहीं यकीन ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*दया अदया मिश्रित दोष का अंग ९२*
इस अंग में दया और अदया मिलना परीक्षा रूप दोष का विचार कर रहे हैं ~
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समरथ मारि जिलावणे, द्वेष दया में जाण ।
अमर सजीवन राखतों१, वेत्ता२ करो बखाण३ ॥१॥
जो समर्थ पुरुष मार कर जीवित कर देता है, उसकी दया में द्वेष रूप दोष जानना चाहिये, द्वेष बिना मारना संभव नहीं हो सकता । हे ज्ञानी२जनो ! उसी की श्रेष्ठता का कथन३ करो जो संजीवन ब्रह्म में स्थिर१ करके अर्थात ब्रह्म को मिलाकर अमर कर देता है ।
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पुण्य सु पाणी स्वातिका, सुरति१ सु सीप मझार ।
पाप पणिंगा२ खार जल, मति मुक्ता मिल ख्वार३ ॥२॥
सीप में स्वाति नक्षत्र का जल-बिन्दु पड़ता है तब मोती बनता है किन्तु उसमें एक बिन्दु२ भी समुद्र के खारे जल की पड़ जाय तो मोती खराब हो जाता है, वैसे ही वृत्ति१ में दयारूप पुण्य होता है किन्तु उसमें थोड़ा भी अदयारूप पाप आ जाय तो उस दोष से बुद्धि खराब३ हो जाती है ।
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खैर१ कहर२ सौं मिलतही, खल३ हल४ होय सुखाश५ ।
बेकीमत६ सु बदी७ बधै, नेकी होत सु नाथ ॥३॥
दया रूप भलाई१ में अदया रूप क्रोध२ मिल जाता है तब दुष्ट३ के सुख४ की आशा पूर्ण५ होने में सुगमता हो जाती है, फिर तो बेहद६ बुराई७ बढ जाती है और भलाई नष्ट हो जाती है ।
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चौपाई ~
ज्यों मिश्री माँहिं घोल विष पीजे,
त्यों सुकृत में कुकृत कीजे ।
दया मध्य दुष्टता ऐसी,
ज्यों घर माँहिं सु डायण बैसी ॥४॥
जैसे मिश्री में मिलाकर विष का पीना हानिकारक है, वैसे ही अच्छे कार्य में बुरा कार्य करना हानिकारक है । जैसे घर में डाकिनि का प्रवेश अच्छा नहीं होता, वेसे ही दया में दुष्टता का प्रवेश अच्छा नहीं होता ।
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पुण्य पिशुनता एकठे, तब लग धर्म न कोय ।
भाई हत भाई को पोषे, समझे बहु दुख होय ॥५॥
पुण्य कार्य और दुष्टता एकत्र है तब तक धर्म नहीं हो सकता । पुण्य और दुष्टता का एकत्र होना ऐसा है जैसे भाई को मारकर भाई का पोषण करना । ऐसा किये समझने पर दु:ख ही होता है ।
(क्रमशः)
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