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*सुख दुख मन मानै नहीं, आपा पर सम भाइ ।*
*सो मन ! मन कर सेविये, सब पूरण ल्यौ लाइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
समाधिस्थ कौन है? स्थितधी कौन है? कौन है जिसकी प्रज्ञा थिर हुई? कौन है जो चंचल चित्त के पार हुआ? अर्जुन ने उसके लक्षण पूछे हैं। *श्री कृष्ण इस श्लोक में कह रहे हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता। दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर केवल वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख की चाह जहां है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के फूल चाहिए, उसे दुख के कांटों के लिए तैयार होना ही पड़ता है।*
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इसलिए सर्वप्रथम श्री कृष्ण कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पृहा नहीं है, सुख की जिसे आकांक्षा नहीं है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख की आकांक्षा है, तो दुख की उद्विग्नता होगी। सुख की आकांक्षा नहीं है, तो दुख असमर्थ है फिर उद्विग्न करने में।
सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, प्रीतिकर उत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में भी, कंपता है। इसलिए यदि कभी बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख से भी व्यर्थ सिद्ध हो सकता है।
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तो सुख केवल दिखाई पड़ता है, मिलता सदा दुख है। और जिसने सुख चाहा हो, उसे दुख मिल जाए, वह उद्विग्न न हो? तो फिर उद्विग्न और कौन होगा? जिसने सुख मांगा हो और दुख आ जाए, जिसने जीवन मांगा हो और मृत्यु आ जाए, जिसने सिंहासन मांगे हों और सूली आ जाए, वह उद्विग्न नहीं होगा? उद्विग्न होगा ही। अपेक्षा के प्रतिकूल उद्विग्नता निर्मित होती है।
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*और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि वास्तव में जो सुख मांग रहा है, वह भी उद्विग्नता मांग रहा है। सम्भवतय इसका कभी विचार न किया हो। विचार तो हम जीवन में किसी वस्तु का नहीं करते। आंख बंद करके जीते हैं। अन्यथा श्री कृष्ण को कहने की आवश्यकता न रह जाए। हमें ही दिखाई पड़ सकता है।*
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और एक बात यदि सुख का आघात आकस्मिक हो, तीव्र हो, तो जीवनधारा तक टूट सकती है। तार टूट सकते हैं। सुख भी उत्तेजना है, प्रीतिकर। अपने आप में तो केवल उत्तेजना है। हमारे मनोभाव में प्रीतिकर है, क्योंकि हमने उसे चाहा है। इसलिए एक और बात ध्यान में रख लेनी आवश्यक है कि सब सुख परिवर्तनशील हैं, दुख बन सकते हैं। और सब दुख सुख बन सकते हैं। कुल प्रश्न इतना है कि चाह है। चाह का भेद हो जाना चाहिए।
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*सब सुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर दुख हो जाती हैं; सब दुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर सुख बन सकती हैं। सुख और दुख परिवर्तनशील हैं, एक-दूसरे में बदल सकते हैं। इसलिए बहुत गहरे में दोनों एक ही हैं, दो नहीं हैं। क्योंकि बदलाहट उन्हीं में हो सकती है, जो एक ही हों। केवल हमारे मनोभाव में भेद पड़ता है, वस्तु वही है, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता है।*
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इसलिए श्री कृष्ण ने दो श्लोक कहे। पहला कि दुख में जो उद्विग्न न हो, दुख में जो अनुद्विग्नमना हो; दूसरा, सुख की जिसे स्पृहा न हो, जो सुख की आकांक्षा और मांग किए न बैठा हो। तीसरी बात, क्रोध, भय जिसमें न हों।
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यहां एक बात बहुत ठीक से ध्यान में ले लें, श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जिसमें क्रोध और भय न हों, वह समाधिस्थ है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि जो क्रोध और भय को छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है, वे यह नहीं कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, जो समाधिस्थ है, उसमें क्रोध और भय नहीं पाए जाते हैं। इन दोनों बातों में गहरा भेद है। क्रोध और भय जो छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है, ऐसा वे नहीं कह रहे हैं। जो समाधिस्थ हो जाता है, उसका क्रोध और भय छूट जाता है, ऐसा वे कह रहे हैं।
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आप कहेंगे, इसमें क्या भेद है? ये दोनों एक ही बात हैं। ये दोनों एक बात नहीं हैं। ये बहुत दुरी पर हैं, विपरीत बातें हैं। जिस व्यक्ति ने सोचा कि क्रोध और भय छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय को छोड़ने में ही लगा रहेगा, समाधि को कभी नहीं पा सकता। और जिस व्यक्ति ने सोचा कि क्रोध और भय को छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय से लड़ेगा। और क्रोध से लड़कर व्यक्ति क्रोध के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर व्यक्ति भय के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर व्यक्ति और सूक्ष्म भयों में उतर जाता है। क्रोध से लड़कर व्यक्ति और सूक्ष्म तलों पर क्रोधी हो जाता है।
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क्रोध से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा क्रोध को भीतर दबाने में समर्थ हो सकता है। भय से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा निर्भय होने में समर्थ हो सकता है, अभय होने में नहीं। *निर्भय का इतना ही अर्थ है कि भय को भीतर दबा दिया है। भय आता भी है तो कोई चिंता नहीं; हम डटे ही रहते हैं। अभय का अर्थ और है। अभय का अर्थ है, भय का अभाव। निर्भय का अर्थ, भय के पश्च्यात भी डटे रहने का साहस। निर्भय का अर्थ, साहसी। बड़े से बड़ा साहसी व्यक्ति भी भयभीत होता है, अभय नहीं होता। अभय होने का अर्थ, भय है ही नहीं; निर्भय होने का भी उपाय नहीं है। भय बचा ही नहीं है।*
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