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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*बेपरवाही*
*एकै शब्द अनन्त शिष, जब सतगुरु बोले ।*
*दादू जड़े कपाट सब, दे कूँची खोले ॥१४६॥*
*बिन ही किया होइ सब, सन्मुख सिरजनहार ।*
*दादू करि करि को मरै, शिष शाखां शिर भार ॥१४७॥*
गुरु के शब्दों में अनन्त्य व अचिन्त्य शक्ति होती होती है । उनको एक ही बार श्रवण करने से ब्रह्मज्ञान हो जाता है ।
उपनिषद् में लिखा है- “गुरु के द्वारा ब्रह्मज्ञान कराये जाने पर शिष्य की हृद्यग्रन्थि(अज्ञान) खुल जाती है, सब संशय समाप्त हो जाते हैं और समग्र कर्मजाल नष्ट हो जाता है । “मैं ब्रह्म हूँ”- ऐसा एक बार भी एकाग्र मन से यदि शिष्य ध्यान कर लेता है तो उसके सैंकड़ों कल्पों के किये पाप नष्ट हो जाते हैं । अतः सद्गुरु किसी को शिष्य नहीं बनाता; अपितु उसके प्रभाव से जिज्ञासु शिष्य स्वयं ही आकर उनकी शरण ग्रहण के ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है । और जो गुरु शिष्य बनाते हैं वे शिष्य प्रशिष्य परम्परा का भार ढोते हुए उनके सुख दुःख से स्वयं भी पीड़ित रहते हैं ॥१४७॥”
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*सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास ।*
*दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास ॥१४८॥*
जैसे सूर्योदय के होते ही सूर्य का प्रकाश दिव्य मणि पर पड़ता है तो वह उस सूर्य के प्रकाश से चमकने लगती है और गरम हो जाती है; उसी प्रकार शिष्य के शुद्ध अन्तःकरण में गुरु अपनी शक्ति का पात करता है, जिससे शिष्य तत्काल ब्रह्म का अनुभव करने लगता है ।
सूतसंहिता की टीका में माधवाचार्य ने लिखा है-
“गुरु आखें खोलकर कुछ ध्यान करता हुआ शिष्य को देखता है तो यह बन्धन से मुक्त कराने वाली ‘चाक्षुषी दीक्षा’ होती है । दैशिक गुरु स्पर्श से, दर्शन से, शब्द से कृपा करके शिष्य के देह में शाम्भवी शक्ति का समावेश करता है ।”
शिवानन्द लहरी में भी लिखा है-
“हे भगवन् ! मैं आपके श्रीचरणों में नतमस्तक हूँ । प्रतिदिन आप का ही स्मरण करता हूँ । आपकी शरण में आया हूँ । अब आप से ही चाक्षुषी दीक्षा की याचना करता हूँ, जिसे चिरकाल से चाह रहा हूँ । हे लोकगुरु शम्भो ! आप मुझे उपदेश करें कि जिससे मेरे मन को सुख प्राप्त हो ।”
यह घटना कर्मसाम्य होने पर ही होती है ।
सूतसंहिता(यज्ञखंड) में लिखा है-
“अधर्म-धर्म के समान होने पर ही शाम्भवी शक्ति का चैतन्य में पात होता है ।” आगमशास्त्र वाले यह कहते हैं-
“धर्म-अधर्म के समान होने पर ही इसका पात होता है । यह शम्भु की ज्ञानात्मिका पराशक्ति है ।”
“शक्ति” शब्द से केवल अद्वैत रूपचैतन्य ही विवक्षित है । शक्ति का यह पात औपचारिक ही है; क्यों कि शक्ति तो सर्वव्यापक है, ब्रह्मस्वरूप है, अमूर्त है, और अनन्त है । अतः उसका वास्तविक पात नहीं हो सकता । आगमशास्त्र में लिखा है-
यह परमात्मा की शक्ति है, इसका पतन कैसे कहा गया; क्योंकि ऊपर से नीचे गिरने को “पतन” कहते हैं, अतः जो अमूर्त और सर्वगत है उसका पात कैसा? आपने ठीक ही कहा, यह शक्तिव्यापिनी है, नित्य, सहजा और शिवभाव में स्थित है । फिर भी ये जो पशुपाश में बंधे हुए हैं उनमें यह गुप्त हो गयी । जिनके पापपंक धुल गये उन प्राणियों में यह अभिव्यक्ति होती है । उसी को(उस अभिव्यक्ति को) ही ‘पतित’ कहते हैं । जब इसका शिष्य के चित्त में पात होता है तब उस में कल्पित मोहरूपी माया जल जाती है तो उस को ही ‘पतन’ कह दिया है । उस स्थिति में शिष्य का शरीर गिर जाता है, या शरीर कांपने लगता है और परमानन्द की प्राप्ति से वह प्रसन्न हो जाता है । पसीना आ जाता है, रोमावलि खिल जाती है । तब समझना चाहिये कि इस शिष्य में गुरु ने अपनी शक्ति का पात किया है ।
जब उस साधक का चित्त प्रसन्न होता है तब वेदान्तवाक्यजन्य विद्या(ज्ञान) उसकी समग्र अविद्या, सूर्योदय में अन्धकार की तरह नष्ट हो जाती है ॥१४८॥
(क्रमशः)

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