शनिवार, 23 नवंबर 2019

= १७७ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*मन सबही छाड़ विकारा,*
*प्राणी होइ गुणन तैं न्यारा ।*
*निर्गुण निज गहि रहिये,*
*दादू साध कहैं, ते कहिये ॥*
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श्री कृष्ण कहते हैं, अर्जुन ! इंद्रियां, मन, यही काम के, वासना के मूल स्रोत हैं। इन्हीं के द्वारा वासना का सम्मोहन उठता है और जीवात्मा को घेर लेता है। यही हैं स्रोत, जहां से विषाक्त झरने फैलते हैं और जीवन को भटका जाते हैं। तू पहले इन पर वश को उपलब्ध हो, तू इन्हें मार डाल। श्री कृष्ण सख्त से सख्त शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, तू इन्हें मार डाल, तू इन्हें समाप्त कर दे।
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इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। इंद्रियों को, मन को मार डाल, इससे अनेक लोगों को ऐसा लगा कि इंद्रियां काट डालो, आंखें फोड़ डालो, टागें तोड़ दो। न रहेंगे पैर, जब पैर ही न रहेंगे, तो भागोगे कैसे वासना के लिए? परन्तु उन्हें पता नहीं कि वासना बिना पैर के भागती है, वासना के लिए पैरों की कोई आवश्यकता नहीं है।
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लंगड़े भी वासना में उतनी ही तेजी से भागते हैं, जितने तेज से तेज भागने वाले भाग सकते हैं। फोड़ दो आंखों को, परन्तु अंधे भी वासना में उसी तरह देखते हैं, जैसे आंख वाले देखते हैं। बल्कि सच तो यह है, आंख बंद करके वासना जितनी सुंदर होकर दिखाई पड़ती है, खुली आंख से कभी दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए जो बहुत खुली आंख से देखता है, वह तो कभी वासना से ऊब भी जाता है। परन्तु जो आंख बंद करके ही देखता है, वह तो कभी नहीं ऊबता है।
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*इंद्रियों को मार डाल अर्जुन, इस वचन से बड़े ही गलत अर्थ लिए गए हैं। क्योंकि मारने की बात नहीं समझी जा सकी। हम तो मारने से एक ही अर्थ समझते हैं कि किसी वस्तु को तोड़ डालो। जैसे कि एक बीज है। बीज को मारना दो तरह से हो सकता है। एक, जैसा हम समझते हैं। बीज को मार डालो, तो हम कहेंगे, दो पत्थरों के बीच में दबाकर तोड़ दो, मर जाएगा। परन्तु यह बीज का मारना बहुत कुशलतापूर्ण न हुआ। क्योंकि उसमें तो वह भी मर गया, जो वृक्ष हो सकता था। बीज को मारने की कुशलता तो तब है, कि बीज मरे और वृक्ष हो जाए। नहीं तो बीज को मारने से क्या लाभ ? निश्चित ही, जब वृक्ष पैदा होता है, तो बीज मरता है। बीज न मरे, तो वृक्ष पैदा नहीं होता। बीज को मरना ही है मिट जाना पड़ता है। राख, धूल हो जाता है, मिट्टी में मिलकर खो जाता है, तब अंकुर पैदा होता है और वृक्ष बनता है।*
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इंद्रियों को मारना, दो पत्थरों के बीच में बीज को दबाकर मार डालने जैसी बात समझी है कुछ लोगों ने। और उसके कारण एक बहुत ही विक्षिप्त, पागल त्यागवाद पैदा हुआ; जो कहता है, तोड़ दो, मिटा दो। परन्तु जिसे हम मिटा रहे हैं, उसमें कुछ छिपा है। उसे तो मुक्त कर लो। यदि वह मुक्त न हुआ, तो हम भी मिट जायेंगे। उसमें हम भी मिटेंगे क्योंकि इंद्रियों में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन को तोड़ना है, पर मन में जो ऊर्जा है, वह आत्मा तक पहुंचा देनी है। इंद्रियों को तोड़ना है, परन्तु इंद्रियों में जो छिपा है, वह आत्मा तक वापस लौटा देना है। इसलिए मारने का अर्थ रूपांतरण है। वास्तव में रूपांतरण ही ठीक अर्थ में मृत्यु है।
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श्री कृष्ण जब इंद्रियों और मन को अर्जुन से कहते हैं, मार डाल। तो श्री कृष्ण के मुंह में ये शब्द वह अर्थ नहीं रखते, जो अर्थ त्यागवादियो के मुंह में हो जाता है। क्योंकि श्री कृष्ण इंद्रियों के कहीं भी विरोधी नहीं हैं। यह बात श्री कृष्ण के व्यक्तित्व में आ ही नहीं सकती। श्री कृष्ण बांसुरी बजाने वाले हैं, श्री कृष्ण रात्रि चन्द्रमा और तारों के नीचे महारास करते हैं, उन श्री कृष्ण के मुंह से इंद्रियों को कुचलने की बात समझ में नहीं आती। जो मोर मुकुट लगाकर रहते हैं, जिन का चित्त प्रेम से भरपूर व्यक्तित्व वाला हैं, जो जीवन को उसकी सर्वांगता में स्वीकार करने वाले, वे मन को मारने की बात? असंभव।
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*श्री कृष्ण का यह वक्तव्य इंद्रियों के विरोध में नहीं है, इंद्रियों के रूपांतरण के लिए यह वक्तव्य है। वास्तव में रूपांतरण से ही मरती हैं इन्द्रियां, मारने से कोई इंद्रिय कभी नहीं मरती।*
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*वासना अथवा मन को मारने का अर्थ है, कि वासनाओं का रूपांतरण, अब प्रश्न है कि रूपांतरण कैसे हो ? रूपांतरण के लिए हमें द्रष्टा भाव से जीने का अभ्यास करना है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।*
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*क्रोध आये, तो क्रोध को रोको मत बस स्वयं को देखते रहो कि देखो मैं क्रोध में हूँ, वासना जगे तो वासना को रोको मत, मात्र देखो स्वयं को कि देखो मेरे भीतर वासना उठ रही है, और एक दिन अचनाक आप पावोगे की रुपांतरित हो गयी वासना।*

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