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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*पाणी पावक, पावक पाणी, जाणै नहीं अजाण ।*
*आदि रु अंत विचार कर, दादू जाण सुजाण ॥*
*सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।*
*दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है(तथा) जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ ह्रै वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है। और हे अर्जुन ! हम अग्नि(सदृश) न पूर्ण होने वाले कामना रूपी ज्ञानियों के नित्य वैरी से मनुष्य का ज्ञान ढंका हुआ है।
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श्री कृष्ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो, ऐसे ही काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से ढंकी होती है। जैसे गर्भ झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की आत्मा उसकी कामना से ढंकी होती है। इन श्लोकों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
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*पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि ज्ञान स्वभाव है, विधमान, अभी और यहीं। ज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है, जो आज हमारे पास नहीं है और कल हम पा लेंगे। क्योंकि अध्यात्म मानता है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी नहीं पा सकेंगे। अध्यात्म की समझ है कि जो हमारे पास है, हम केवल उसे ही पा सकते हैं। यह बड़ी उलटी बात दिखाई पड़ती है। जो हमारे पास है, उसे ही हम केवल पा सकते हैं; और जो हमारे पास नहीं है, हम उसे कभी भी नहीं पा सकते हैं। इसे ऐसा कहें कि जो हम हैं, अंततः वही हमें मिलता है, और जो हम नहीं हैं, हमारे अनंत प्रयास, दौड़ धूप हमें वहां नहीं पहुंचाते, वह नहीं उपलब्ध होता, जो हम नहीं हैं।*
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जैसे धुएं में आग ढंकी हो, तो आग को पाना नहीं होता, केवल धुआं अलग हो जाए, तो आग प्रकट हो जाती है। जैसे सूरज बदलियों से ढंका हो, तो सूरज को पाना नहीं होता; केवल बदलिया हट जाएं, तो सूरज प्रकट हो जाता है। जैसे बीज ढंका है, वृक्ष को पाना नहीं है। वृक्ष बीज में है ही, अप्रकट है, छिपा है, कल प्रकट हो जाएगा। ऐसे ही ज्ञान केवल अप्रकट है, कल प्रकट हो जाएगा। इसके दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि ....
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*अज्ञानी भी उतने ही ज्ञान से भरा है, जितना परमज्ञानी। भेद अज्ञानी और ज्ञानी में यदि हम ठीक से समझें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ थोड़ा ज्यादा होता है, धुआं ज्यादा होता है। आग तो उतनी ही होती है, जितनी ज्ञानी के पास होती है; अज्ञानी के पास कुछ और अधिक भी होता है, धुआं भी होता है। सूरज तो उतना ही होता है जितना ज्ञानी के पास होता है, अज्ञानी के पास काली बदलिया भी होती हैं। यदि इस तरह सोचें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ अधिक होता है। और जिस दिन ज्ञान उपलब्ध होता है, उस दिन यह जो अधिक है, यही खोता है, यही आवरण टूटकर गिर जाता है। और जो भीतर छिपा है, वह प्रकट हो जाता है।*
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तो पहली बात तो यह समझ लेनी आवश्यक है कि अज्ञानी से अज्ञानी मनुष्य के भीतर ज्ञान पूरी तरह विद्धमान है, अंधेरे से अंधेरे में भी, गहन अंधकार में भी परमात्मा पूरी तरह विद्धमान है। कोई कितना ही भटक गया हो, कितना ही भटक जाए, तो भी ज्ञान से नहीं भटक सकता, वह उसके भीतर विद्धमान है। हम कहीं भी चले जाएं और हम कैसे भी पापी हो जाएं और कितने भी अज्ञानी और कितना ही अंधेरा और जीवन कितने ही धुएं में घिर जाए, तो भी हमारे भीतर जो है, वह नहीं खोता है। उसके खोने का कोई उपाय नहीं है।
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अज्ञान को हम क्या समझें? अज्ञान से दो अर्थ हो सकते हैं। ज्ञान का अभाव हो सकता है अज्ञान से। श्री कृष्ण का यह अर्थ नहीं है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, यह भी बहुत आश्चर्य की बात है कि धुआं वहीं प्रकट हो सकता है, जहां अग्नि हो। धुआं वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां अग्नि न हो। अज्ञान भी वहीं प्रकट हो सकता है, जहां ज्ञान हो। अज्ञान भी वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां ज्ञान न हो।
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दूसरी आश्चर्य की बात यह है कि धुआं तो बिना अग्नि के कभी नहीं होता, परन्तु अग्नि कभी बिना धुएं के हो सकती है? वास्तव में धुएं का संबंध अग्नि से इतना ही है कि अग्नि बिना ईंधन के नहीं होती। और ईंधन यदि गीला है, तो धुआं होता है, और ईंधन यदि सूखा है, तो धुआं नहीं होता। परन्तु धुआं बिना आग के नहीं हो सकता, ईंधन कितना ही गीला हो। ईंधन यदि सूखा हो, तो आग बिना धुएं के हो सकती है, दमकता हुआ अंगारा बिलकुल बिना धुएं के होता है।
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अज्ञान के अस्तित्व के लिए पीछे ज्ञान आवश्यक है, इसलिए अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अनुपस्थिति नहीं है। अज्ञान भी बताता है कि भीतर ज्ञान विद्धमान है। अन्यथा अज्ञान भी संभव नहीं है, अज्ञान भी नहीं हो सकता है। अज्ञान केवल आवरण की जानकारी देता है। और आवरण सदा उसकी भी जानकारी देता है, जो भीतर विद्धमान है। बीज केवल आवरण की जानकारी देता है, अंडे के ऊपर की खोल केवल आवरण की जानकारी देती है। साथ में यह भी जानकारी देती है कि भीतर वह भी विद्धमान है, जो आवरण नहीं है।
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*वासना को समझना आवश्यक है, अन्यथा आत्मा को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना आवश्यक है, अन्यथा अज्ञान को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना आवश्यक है, अन्यथा का ज्ञान प्रकट होना असंभव है। अब यदि हम ठीक से समझें, तो ज्ञान में अज्ञान बाधा नहीं बन रहा है, ठीक से समझें, तो ज्ञान में वासना बाधा बन रही है। क्योंकि वासना ही गीला ईंधन है, जिससे कि धुआं उठता है, वासना मुक्त व्यक्ति सूखे ईंधन की भांति है।*

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