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*जिसका तिसकौं दीजिये, सांई सन्मुख आइ ।*
*दादू नख शिख सौंप सब, जनि यहु बंट्या जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
इस अंग में पुण्य कर्मों की विशेषता और करने की प्रेरणादि संबंधी विचार दिखा रहे हैं ~
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सकल जोग१ जीव को मिलै, कहु सुकृत किन होय ।
रज्जब पहरे२ पुण्य के, न करि नींद कछु जोय ॥१॥
संपूर्ण योग्यता१ जीव को मिलने पर भी कहो पुण्य कर्म क्यों नहीं होते ? इस मनुष्य शरीर रूप पुण्य में समय२ में निद्रा में ही मत पड़ा रह कुछ विचार करके देख किसमें तेरा भला है ।
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माया काया कारवी१, प्राणहि परिहर जाय ।
ताथै रज्जब समयसिरि२, सुकृत लीजे लाय ॥२॥
माया और काया शुभ कर्म करने१ के लिये ही प्राप्त हुई है और सदा रहने वाली नहीं हैं, ये दोनों ही प्राणी को त्याग कर चली जाती हैं । अत: इन दोनों को इस प्राप्त अवसर२ में ही पुण्यकर्मो में लगाकर सफल करले ।
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रज्जब पावक प्राणि का, अंत निरंतर बास ।
तो धन काढो धूम ज्यों, पहले धरो अकाश ॥३॥
काष्ट में अग्नि के निरंतर निवास का अंत होता है तब धुआं को पहले ही अकाश में पहुँचा कर आप व्यापक अग्नि में मिलता है, वैसे ही शरीर में प्राणी के निरंतर निवास का अंत होगा, इसलिये धन को पहले ही पुण्यकर्म में लगाकर प्रभु के पास पहुँचा देना चाहिये ।
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जेता सुकृत कर लिया, तेता प्राणि अधार ।
जन रज्जब धन धाम में, पीछे चले न लार ॥४॥
जितना धन पुण्य कर्मो में लगाया जाता है, यही प्राणी के सुख का आधार होता है, और जो घर में पड़ा रहता है वह फिर साथ नहीं जाता ।
(क्रमशः)

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